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युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
साधर्मिकों के साथ विरोध-वैरभाव नहीं रखना चाहिये। ग्रंथ में “धरणागाई" शब्द से-जो स्वयं शासकादि पद पर है तो किसी को गिरफतार करना, मारना, दण्ड देना, आदि कार्य नहीं कराने चाहिये। स्वयं शासक न हो तो उपरोक्त कार्य अन्य शासकों से भी नहीं करावें, न ही कार्य करने की प्रेरणा देवें, न ही किसी के साथ मुकद्दमा, केस करें । साधर्मिकों को दिया हुआ धन वापिस लेने के लिये अन्यत्र देशों में भी न जावें।
नवांगी वृत्तिकार अभयदेवसूरिजी ने भी अपने ग्रंथ “साधर्मी वात्सल्य कुलक' में कहा है
नवकार मंत्र का स्मरण करनेवाले सभी जैन स्वधर्मी हैं। उनके साथ विवादकलह आदि का सर्वथा वर्जन करें, क्योंकि शास्त्र में कहा है कि, जो क्रोध में आकर स्वधर्मी पर प्रहार करता है, मन में भी वैसा विचार करता है वह निर्दय, लोकबन्धु भगवान की आशातना करता है। भगवान की आज्ञा में वर्त्तते स्वधर्मी को जो मोह दोष से दुःखी करता है, वह तीर्थंकर-श्रुतसंघ का प्रत्यनीक-विरोधी है। ५९
“सीयंते' इत्यादि दुष्काल में, दरिद्रता से, बन्दी बनाये जाने के कारण दुःखी हो रहे बन्धुजनों को, शक्ति होने पर भी राजबल, धनबल आदि होने पर भी जब तक विपत्ति से मुक्त न करूँ, तब तक मैं भोजन नहीं करूँगा। क्योंकि कहा है :
वही धन, वही सामर्थ्य और वही विज्ञान सर्वोत्तम है, जो सुश्रावक साधर्मिक भाइयों के कार्य में व्यय करते हैं। ‘श्राद्धदिनकृत्य सूत्र' में भी साधर्मिक भक्ति का वर्णन दो प्रकार से बताया है:-६०
द्रव्य से उपरोक्त जानना तथा भावसे धर्मकार्य में जिनपूजा सामायिक प्रतिक्रमण आदि में श्रावक को प्रेरणा देने के लिए निर्देश दिया है।
विवाह कलहं चेव सव्वहा परिवज्जइ । साहम्मिएहिं सद्धिं तु जओ सुत्ते वियाहियं ।। १ जो किर पहरइ साहमियम्मि कोवेण दंसणमणम्मि। आसायणं च जो कुणइ निक्किवो लोगबंधूणं ।। २ आणाए वटुंतं जो उवदूहिज्ज मोहदोसेण। तित्थयरस्स सुयस्स य संघस्स य पच्चणीओ सो ।। ३ श्री अभयदेवसूरि विरचित “साधर्मिक वात्सल्यकुलक"
(उद्धृत-चर्चर्यादिसंग्रह-पृ.६२) श्राद्धदिनकृत्यसूत्र-जैन धर्म प्रचारक सभा भावनगर-१०२
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