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युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान जिन प्रवचन को माननेवाले साधर्मिक बन्धुओं के प्रति वात्सल्य करता हूँ। उन साधर्मी बन्धुओं के साथ विरोध-वैर भाव नहीं रखूगा। और न धरणा दूँगा५६, न ही उनके साथ लड़ाई झगड़ा करूँगा । साधर्मिक लोग तन, धन किसी और प्रकार से दुःखी हो उस हालत में शक्ति के रहते दुःख मिटाये बिना भोजन नहीं करूंगा। (२३-२४)
आचार्यश्री ने साधर्मिक भक्ति पर अत्यधिक जोर दिया है, क्योंकि साधर्मिक भाइयों का सहयोग मिलना अति दुर्लभ है। इसलिये समान धर्मवाले साधर्मिक भाइयों के साथ वात्सल्यभाव रखने की प्रेरणा दी है। साधर्मिक भाइयों के साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार रखने से तो वे धर्म में अस्थिर होंगे तो धर्म में स्थिर बन जाएंगे, जो स्थिर हैं वे स्थिरतम हो जाएंगे।
अपने सगे, स्नेही, सम्बन्धीजनों की अपेक्षा साधर्मिकों से अत्यधिक स्नेह रखने की प्रेरणा दी है। चाहे वे भिन्न भिन्न देशों में उत्पन्न, भिन्न भिन्न जातिवाले होते हैं, अगर वे जैन धर्म स्वीकार करते हैं तो हमारे परस्पर बन्धु ही हैं। ५७
जो नवकार मंत्र को धारण करता है, वह भी परम बन्धु के समान है। इस स्वधर्मी बन्धुओं का बहुमूल्य वस्तुओं से सन्मान करना चाहिये । कभी साधर्मिक भाई आपत्ति में हो तो अपना धन देकर संकट से मुक्त कराना चाहिये। साधर्मिक वात्सल्य करके राजा लोग अतिथि संविभाग व्रत का पालन करते हैं । दंडवीर्य राजा हमेशा साधर्मिक भक्ति करते थे। साधर्मिक भक्ति करनेवाला तीर्थंकर नाम कर्म का उपार्जन करता हैं । ५८
यहाँ “धरणागाइ" शब्द से-जो स्वयं शासकादि हो, दूसरे को गुप्त रीति से पुलिस में गिरफ्तार कराना, भूखा रखना आदि कार्य नहीं करूंगा। शासक न होने पर उपर्युक्त कार्य शासकों से नहीं कराऊंगा। न धरणा सत्याग्रह करुंगा, न कभी मुकद्दमा-केस करुंगा।
५७.
अन्नन्न-देस-जाया अन्नदेस-वड्डियसरीरा। जिण-सासणं पवन्ना, सव्वे ते बंधवा भणिया ।।
संभवनाथ भगवान तीसरे भव में विमलवाहन राजा थे। महान दुष्काल में लाधर्मिक भाइयों को भोजन, वस्त्रादिक देकर जिननाम कर्म (तीर्थंकर)उपार्जन किया था।
(श्राद्धविधि प्रकरण-मफतलाल झवेरचंद झवेरी, पृ.२८५)
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