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________________ युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान १२९ जैन साहित्य में श्रावक के आचारधर्म द्वादश व्रतों के रूप में निरूपित किया है। बारह व्रतः५ अणुव्रत, ३ गुणव्रत, ४ शिक्षाव्रत. ५ अणुव्रत को शीलव्रत भी कहा है। अणुव्रत का अर्थ :-छोटे व्रत: श्रावक उन व्रतों का पालन मर्यादित रूप से करता है, इसलिए उसके व्रत अणुव्रत कहे जाते हैं। महाव्रतों का आंशिक पालन अणुव्रत है।। व्रतों का मूल उद्देश्य कर्मो की निर्जरा है, आत्मशुद्धि, परमात्म भाव की प्राप्ति और वीतरागता की उपलब्धि है। जैन धर्म में मुख्य व्रतों को “महाव्रत' कहा है । योगदर्शनकार-ने उसे “पंचयम' कहा है। और बौद्ध धर्म ने उन्हें पंचशील' कहा है। इस प्रकार जैन, बौद्ध और वैदिक परम्परा में व्रत का महत्त्वपूर्ण स्थान है। सभी व्रतों का एक-दूसरे के साथ सम्बन्ध है। श्रावक के ५ अणुव्रत और श्रमण के ५ महाव्रत दोनों के नाम में साम्यता है। किन्तु इन व्रतों के पालन में अन्तर है। श्रमण-महाव्रतों का पूर्णरूपेण पालन करता है, जबकि श्रावक महाव्रतों का आंशिक रूप से पालन करता है। पर दोनों ही मोक्ष मार्ग है। अणुव्रत और महाव्रत एक दूसरे के पूरक हैं। श्रमणों के आचार की अपेक्षा श्रावक के आचार सरल है। श्रावक गृहस्थ अवस्था में रहकर, संसार में रहते हुए हर पल, हर क्षण अपने व्रतों के प्रति सावधान रहता है। श्रावक का भी हमेशा लक्ष्य रहता है कि मैं श्रमण धर्म की ओर बढ़ने का प्रयत्न करूँ । इस प्रकार श्रावक के पाँच अणुव्रतों का वर्णन किया है। अब श्रावक को साधर्मिक के साथ अर्थात् समान धर्मी के प्रति कैसा व्यवहार रखे, उसके विषय में बताते हैं: “पवयण साहम्मिणं, करेमि वच्छल्लमविगप्पं ।। २३ ।। "तेहिं समं न विरोहं करोमि न च धरणगादि कलह सीयंतेसु न तेसिं सइ विरिए भोयणं काहं ॥"२४ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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