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युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान सम्यक्त्वधारी श्रावक पशु-पक्षी का पालन पोषण न करें, नहीं उनकी लडाई देखें, न ही उन्हें आपस में लड़ावें । पद्य(२०) अगर उपरोक्त कार्य श्रावक करेंगे तो मोहनीय कर्मो का बंध हो जाएगा और भव-भ्रमण बढ़ जायेगा।
श्रावक को बारह-व्रत ग्रहण करके उसका पालन करना चाहिये । उसका आचार्यश्री उपदेश देते है :
सम्यक्त्व को स्वीकार करने पर श्रावक को बारह व्रत पालन करने चाहिए।५५ बारह व्रत में ५ अणुव्रत होते हैं।
उनमें पहला व्रत१. स्थूल प्राणातिपात-विरमण व्रतः
श्रावक चलते-फिरते, आँखों से दिखते जीवों को बिना कारण नहीं मारना चाहिये।
२. स्थूल-मृषावाद विरमण व्रतः
मृषा भाषा-जिसके बोलने से उत्तम लोगों में निंदा हो, एवं राजा से दंडित हो, दूसरो का घात हो ऐसी असत्य भाषा (वाणी)नहीं बोलनी चाहिये।
३. स्थूल अदत्तादान:
बिना दिये दूसरे का धन नहीं लूंगा अर्थात् चोरी नहीं करूंगा। ऐसा व्रत लेना चाहिये।
४. स्थूल-मैथुन विरमण व्रतःस्वस्त्री में संतोष रखते हुए परस्त्री की इच्छा नहीं करनी चाहिये। ५. स्थूल परिग्रह-परिमाण व्रतः
जरुरत से ज्यादा धन, धान्य, क्षेत्र, वस्तु आदि का संग्रह नहीं रखना चाहिये। पद्य (२१)
५५.
बारह व्रत की विशेष जानकारी के लिये-दृष्टव्य प्रवचन सारोद्धार-गृहस्थ प्रतिक्रमणद्वार-पृष्ठ ८१ से ८५ पाँच अणुव्रत :- स्थूलरूप से हिंसा, असत्यादि पापों का त्याग, स्थूल चोरी का त्याग, स्वस्त्रीसंतोष, परिग्रह परिमाण तीन गुणव्रत:-दिशा परिमाण, भोगोपभोग परि., अनर्थदंड परि. चार शिक्षाव्रतः-सामयिक, देशावकासिक, पौषध, अतिथि संविभाग।
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