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________________ युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान १२७ __ आगम साहित्य में रात्रिभोजन में अनेक दोष बताये हैं । रात्रिभोजन में अनेक दुष्परिणाम होने की सम्भावना रहती है। जैन धर्म में रात्रिभोजन निषेध पर विशेष बल दिया गया। प्राचीनकाल में रात्रिभोजन का त्याग जैनत्व की पहचान सी हो गयी कि-जैन वह है जो रात्रि में भोजन नहीं करता। जैन परम्परा में तो रात्रिभोजन वर्जन का स्पष्ट आदेश है ही किन्तु वैदिक परम्परा ग्रंथों में भी रात्रिभोजन का निषेध किया गया है : ___ मार्कण्डेय ऋषिने- रात्रिभोजन को मांस बराबर तथा पानी को रूधिर-समान बताया है । ५२ महाभारत में कहा है-रात्रि में भोजन नहीं करना चाहिये । ५३ ___ इस प्रकार वैदिक परम्परा में भी रात्रिभोजन निषेध के उल्लेख प्राप्त होते हैं। जैन श्रमणों के लिये तो रात्रिभोजन सर्वथा निषेध किया है। श्रावकों के लिये भी रात्रिभोजन नहीं करना चाहिये । इस प्रकार के उल्लेख अनेक स्थलों पर आचार्यों ने किये हैं। अतः आचार्यश्री जिनदत्तसूरिजी ने भी बाईस अभक्ष्य का सेवन करने का सर्वथा श्रावकों के लिये निषेध किया है। अब कच्चे गोरस के द्विदलान्न के लक्षण बताते है संगरफली४ - सांगरी (बबूल की फली, कुमठिया आदि)तथा मूंग, मोठ, दो दलवाले अनाज बिना गरम किये दही, छाछ, रायते के साथ भक्षण न करें। पद्य (१८) क्योंकि द्विदल अन्न के साथ कच्चे दही को मिलाने से सूक्ष्म-त्रस जीवों की उत्पत्ति होती है। सुश्रावक कच्चे दही के साथ द्विदल न खावें, अगर खाना हो तो हाथ-पात्र आदि धोकर, उस पानी को पीकर दही, तक्र का भक्षण करना उचित है। अब रात्रि में सदोष कर्म, रात्रि में स्नान निषिद्ध है, क्योंकि कुंथु, चिटी आदि जीवजन्तु दिखाई नहीं पड़ते। उनका नाश होने से प्रथम अणुव्रत का भंग होता है। दिन में स्नान करते समय पानी परिमित और छानकर प्रयोग में लेना चाहिए। अस्तंगते दिवानाथे, आपो रुधिरमुच्यते। __अन्नं माससमं प्रोक्तं, मार्कण्डेय-महर्षिणा॥ "वर्जनीया महाराजन् निशीथे भोजनक्रिया' (शान्तिपर्व-उद्धृत जैन आचार, देवेन्द्र मुनि, पृष्ठ ८७५) कई लोग मुंग, मोढ को द्विदल मानते हैं, लेकिन सांगरियाँ बावलियाँ की फलियाँ को काष्ठ नहीं मानते हैं, किन्तु सिद्धांत में द्विदल के सम्बन्ध में भेद नहीं बताये। अतः सांगरियाँ Jain Education in श्री द्विदल है, कच्चे दही, छाछ के साथ नहीं खाना चाहिये । (चर्चयादि संग्रह पृष्ठ-६०)
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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