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युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान सम्यक्त्वयुक्त श्रावक को आचरण करने योग्य चैत्यवंदन का निर्देश देते हैं कि :
“चियवंदणं तिकालं
सक्कत्थएण वि सया काहं ।” १३ ॥ सम्यक्त्व लिये बाद ऐसा अभिग्रह रखें कि- हमेशा ही शक्रस्तव- नमुत्थुणं पाठ से त्रिकाल चैत्यवंदन करुंगा । चैत्यवंदन भाष्य में- चैत्यवंदन तीन प्रकार के बताये हैं - उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य ।२९ नवकार गुणना जघन्य चैत्यवंदन, शक्रस्तवपूर्वक स्तुति बोलना मध्यम और देववंदन विधि से करना उत्कृष्ट चैत्यवंदन है। चैत्यवंदन शब्द का अर्थ- व्याकरण की दृष्टि से “चित्त" शब्द से भाव अथवा कर्म अर्थ में “य' प्रत्यय लगने से चैत्य शब्द बना। चैत्य का अर्थ जिनप्रतिमा समझना।
जिनप्रतिमा का मन, वचन और काया की एकाग्रता से ध्यान करना, स्तुति करना, नमन करना उसे चैत्यवंदन कहते हैं।
‘प्रवचनसारोद्धार' के अनुसार - साधुओं को चैत्यवंदन सात बार करना चाहिए । तथा श्रावकों को सात, पाँच अथवा तीन बार चैत्यवंदन करना बताया है । ३०
सात बार चैत्यवंदन इस प्रकार :-सुबह प्रतिक्रमण के समय में, जिनमंदिर में, पच्चक्खान पालते समय में, आहार करने के बाद में, सन्ध्या प्रतिक्रमण के समय में, सोते समय में और उठते समय में । साधु-श्रावक सात बार चैत्यवंदन इस प्रकार करे।
जो श्रावक सुबह-शाम प्रतिक्रमण नहीं करनेवाले पाँच बार चैत्यवंदन करें। श्रावक जघन्य से प्रभात, मध्याह्न और सायं त्रिकाल-तीन चैत्यवंदन अवश्य
२९.
नमुक्कारेण जहन्ना, चिइवंदण मज्झ दंड थुइ जुअला। पणदंड थुइ चउक्कग-थयपणिहाणेहिं उक्कोसा ।। (चैत्यवंदन भाष्य-२३) अर्थ- सिद्धांत में पूर्वधरों ने तीन प्रकार से चैत्यवंदना बताई है। नमस्कार से जघन्य, दण्डक अर्थात् अरिहंत चेझ्याणं कहकर अंत में एक स्तुति तक मध्यम और पाँच दण्डक अर्थात् शक्रस्तव, चैत्यस्तव, (अरिहंत चेइयाणं, नामस्तव (लोगस्स), श्रुतस्तव (पुक्खरवरदी), सिद्धस्तव (सिद्धाणं बुद्धाणं) ये पाँच दण्डक कहकर चार थुई तक स्तवन तथा जावंति चेइआई, जावंत केविसाहु और जयवियराय (ये तीन प्रणिधान सूत्र)सूत्र से उत्कृष्ट चैत्यवंदन होता है। विशेष जानकारी के लिये देववंदन भाष्य देखें। प्रवचन सारोद्धार- नेमिचन्द्रसूरि विरचित, गुर्जरभाषान्तर प.हीरालाल हंसराज, जामनगर, चैत्यवंदन द्वार-१, गाथा ९०-९१, पृष्ठ २५
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