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________________ ११८ युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान इसके पश्चात् तीन प्रकार के चैत्यों का वर्णन करते हैं - प्रथम भेद में चैत्य के तीन प्रकार - आययणमनिस्सकडं, विहिचेइयमिहतिहा सिवकरंतु । उस्सग्गओववाया,पासत्थो सनसनिकयं ॥ ५ ॥ आययणं निस्सकडं, पव्यतिहीसु च कारणे गमणं। इयराभावे तस्सत्ति, भाववुडित्थमोसरणं ॥ ६ ॥ १. आयतन-चैत्य: जिसमें सम्यक्-दर्शन, सम्यक्-ज्ञान, सम्यक्-चारित्र आदि गुणों का लाभ होता है उसे आयतन कहते हैं। २. अनिश्राकृत-चैत्य: ___ जो जाँति-भाँति आदि के ममत्व से रहित हो उसे अनिश्राकृत चैत्य कहते हैं। ३. विधि-चैत्य : जिसमें जैनागम-प्रणीत, गीतार्थ गुरु प्रदर्शित विधियों का आचरण किया जाता है, उसे विधि-चैत्य कहते हैं। इस तरह तीन प्रकार का चैत्य ही मोक्ष देनेवाला होता है। इन्ही चैत्यों में सम्यक्त्व सम्पन्न (श्रावक)भव्यात्माओं को सदा जाना चाहिये। निम्न चैत्यों में नहीं जाने का निर्देश किया है, चैत्य का द्वितीय-भेद निश्राकृतचैत्य और अनायतन चैत्य। ४. निश्राकृत चैत्य : पार्श्वस्थ और शिथिलाचारी, साध्वाभासों के नाम से उनके भक्तों ने जो चैत्य बनाये हैं, उसे निश्राकृत चैत्य कहते हैं। इसमें अपवादरूप से ही श्रावकों को जाना उचित है, अर्थात् विधिचैत्यों के अभाव में पूर्णिमादि पर्व-तिथियो के अवसर पर सुश्रावको को जिनवंदन के लिये तथा सुविहित साधुओं को श्रावकों की भाववृद्धि के लिये उसमें प्रवचनार्थ जाना चाहिये । प्रतिदिन जानेवालों को प्रायश्चित्त का भागी बनना पड़ता है। अतः विधि चैत्य के होने पर सुविहित साधुओ व श्रावकों को निश्राकृत चैत्य में नहीं जाना चाहिये। ५. अनायतन चैत्य : जिनसूत्र विरुद्ध आचरण करनेवाले अनार्य साध्वाभास लिङ्गियों द्वारा सेवित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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