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________________ युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान ११७ चैत्यवंदन कुलक में श्रावक-श्राविकाओं के दैनिक कर्तव्य, साधु-भगवंतो के प्रति श्रद्धा भक्ति, आयतन-अनायतन आदि का विवेचन तथा भक्ष्य-अभक्ष्यादि विषयों का संकेतात्मक उल्लेख किया गया है। अर्थात् व्रत (नियमों)की रक्षा के लिये प्रत्येक व्यक्ति को सावधान किया गया है। आचार्यश्री मंगलाचरण में जिन्श्वर को वंदन करके, सम्यकत्वधारी श्रावक के आचार के बारे में बताते है : सम्यक्त्व अर्थात् अरिहंत मेरे देव हैं, सुसाधु मेरे गुरु हैं और तीर्थंकरों द्वारा प्ररूपित मेरा धर्म है। जब श्रावक सम्यक्त्वयुक्त प्रतिज्ञा धारण करता है, तब सद्गुरु श्रावक के शिर पर वासक्षेप डालते हैं। यहाँ वासक्षेप करानेवालों का स्वरूप ग्रंथकार कहते हैंश्रमणोपासकों का वासक्षेप ग्रहण तीन प्रकार से होता है - (१) ग्रास (२) प्रवाह और (३) भाव ग्रंथकार स्वयं विस्तार से कह रहे हैं कि वासक्षेप धारण करनेवाले श्रमणोपासक के मूल दो भेद हैं - द्रव्य से और भाव से । द्रव्य से दो प्रकार के हैं (१) ग्रास (२) प्रवाह (१) ग्रासवासक्षेप :- ग्रास-वासक्षेप अर्थात् उत्तम धन-कुटुम्ब प्रतिष्ठादि के लिये जो धन धान्यादि की वृद्धि करेगा इस भावनासे गुरु महाराज से वासक्षेपग्रहण करते हैं, उसे ग्रास-वासक्षेप कहते हैं। (२) प्रवाह-वासक्षेप :- प्रवाह-वासक्षेप अर्थात् गड्डरिया प्रवाह, बिना विचारे हुये, गतानुगतिक लोक-प्रवाह के कारण ये लोग वासक्षेप लेते हैं, मैं भी लूं, ऐसे ग्रहित वासक्षेप को प्रवाह वासक्षेप कहते हैं। (३) भाव-वासक्षेप:- भाव-वासक्षेप अर्थात् जो निग्रंथ सद्गुरु जिनेश्वरकी आज्ञानुसार आचरण करते हैं, वे ही सद्गुरु होते हैं। उनकी आज्ञानुसार धार्मिक विधि-विधान करवाते हैं, उन धार्मिक अनुष्ठानों से जिनभव्यात्माओं को सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई है, उन भव्य आत्माओं के मोक्ष-पद के निवास हेतु अनन्त-ज्ञान, अनन्त-दर्शन, अनन्त-सुख, अनन्तवीर्य और अनन्त-सम्यक्त्व इन पाँच प्रकार के अनन्तों को पैदा करनेवाला तथा समस्त क्लेशों का अन्त कर देने में समर्थ ऐसे भाव से डाले गये वासक्षेप को भाववासक्षेप कहते हैं। (१ से ५) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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