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युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान इस स्तोत्र पर अनेक वृत्तियाँ लिखी गई हैं । २० ।
अभयरत्न एवं खरतरगच्छीय पंच-प्रतिक्रमण व सप्तस्मरण ग्रंथों में प्रकाशित है। पंच प्रतिक्रमण में संस्कृत छाया और हिन्दी अनुवाद प्रकाशित हैं।
इस स्तोत्र के रचनाकाल सम्बन्धी जानकारी उपलब्ध नहीं है।
इस स्तोत्र के बारे में कहा जाता है कि विक्रमपुर में महामारी का प्रकोप फैला हुआ था, तब आचार्यश्री ने सप्तस्मरण गुणनादि धार्मिक अनुष्ठान द्वारा प्रकोप को शान्त किया था।
प्रस्तुत कृति के नाम से ही स्पष्ट है कि इसमें सुगुरुजनों की सेवा में तल्लीन रहे हुए आचार्यश्री ने गुरु-भक्ति से ओत-प्रोत होकर इस स्तोत्र की रचना की है।
आचार्यश्री गुरुजनों के गुणानुवाद का वर्णन करके, साधुता का महत्त्व बताते हुए कहते हैं कि
मोह को जीतनेवाले, जीवों के संदेह को दूर करनेवाले, श्रेष्ठगुणों के भंडार, श्रेष्ठ साधुता की शोभा से युक्त, लोभ पर विजय प्राप्त करनेवाले, स्व और परदुःख का नाश करनेवाले, क्षीर-समुद्र वत् गंभीर, सर्वदा मोक्षसुख साधना करनेवाले, भवरूपी मेरु को चूर-चूर करने में व्रजसमान, इन्द्र-सुरेन्द्रों से पूजित ऐसे आर्य सुधर्मास्वामी की पट्ट परम्परा में अनुक्रम से ३६वीं पाट पर श्री देवसूरि, श्री नेमिचन्द्र सूरिश्री, उद्योतनसूरि फिर सूरिमंत्र के माहात्म्य को प्रकट करनेवाले, क्रोधादि कषायों को रोकनेवाले और शरद् ऋतु के चन्द्रमा के समान श्री वर्धमानसूरिजी हुए। (१ से ८)
अब यहाँ ग्रंथकार खरतरगच्छ के प्रवर्तक श्री जिनेश्वरसूरिजी के जीवन की ऐतिहासिक घटना का उल्लेख करते हैं
सुह-सील-चोर-चप्परण-पच्चलो निच्चलो जिणमयम्मि।
२०.
(ख)
प.पू.श्री जिनराजसूरिजी के शिष्य उपाध्याय श्री जयसागरजी ने वि.सं. १४९५ के लगभग टीका रची है। श्री समयसुन्दर म.सा. ने वि.सं. १६९५ में टीका रची है। पं. कृष्ण शर्मा ने सुबोधिनी टीका व हिन्दी अनुवाद किया है। महोपाध्याय साधुकीर्ति कृत बालावबोध (यति डुंगरसी भण्डार, जैसलमेर)में
(ग)
(घ)
है।
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