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युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
१०७ जुग-पवर-सुद्ध-सिद्धत-जाणओ पणय-सुगुण-जणो॥ ९॥ पुरओ-दुल्लह-महि-वल्लहस्स, अणहिल्लवाडए पयर्ड।
मुक्का विआरिऊण, सीहेण व्व दव्व-लिंगि गया॥१०॥ अपने समय के युगप्रवर और सर्व सिद्धान्तों के ज्ञाता, शिथिलाचारी जिनमत के चोरों (चैत्यवासियों)को जीतने में समर्थ, ऐसे जिनेश्वरसूरि हुए।
सिंह के समान जिनेश्वरसूरि ने अणहिल्लपुर पाटण में (वि.सं.१०८० में) दुर्लभराजा के समक्ष शास्त्रार्थ करके द्रव्यलिंगि शिथिलाचारी साधुओं (चैत्यवासी यतिओं)रूप हाथियों का विदारण किया (परास्त किया)और अप्रतिबद्ध विहारी साधुओं का विहार मार्ग प्रकट किया।
श्री जिनेश्वरसूरि के शिष्य-प्रशिष्यों द्वारा किये गये उनके गौरव परिचयात्मक उल्लेखों से हमें यह अच्छी तरह ज्ञात होता है कि उनका व्यक्तित्व कितना महान् था।
ग्रंथकार श्री जिनदत्तसूरिजी के उपर्युक्त उल्लेख से ऐतिहासिक घटना ज्ञात होती है। उन्होंने गुजरात के अणहिलवाड़ के राजा दुर्लभराज की राजसभा में नामधारी आचार्यों के साथ वाद-विवाद (शास्त्रार्थ) कर उनको पराजित किया। और वहाँ पर “खरतर" विरुद प्राप्त किया। तथा वसतीवास की स्थापना की। (७ से ११)
तत्पश्चात् श्री जिनेश्वरसूरिजी के शिष्य-प्रशिष्य का वर्णन करते हैं :
श्री जिनेश्वरसूरिजी के शिष्य “संवेगरंगशाला' के रचयिता “आचार्यश्री जिनचन्द्रसूरि" हुए। उनके पट्ट पर स्थानांग आदि नव आगमों के टीकाकार, मुनियों में उत्तम, परम शांति को धारण करनेवाले ऐसे “श्री अभयदेवसूरि हुए। (१२ से १४)
अब यहाँ आचार्यश्री जिनदत्तसूरिजी के उपकारक गुरुदेव श्री जिनवल्लभसूरिजी के गुणों का वर्णन करते हैं :२१. (अ) राज्य प्रधान पुरुषैराकारितः श्री दुर्लभराज महाराजोऽपि महता भटचटपरिवारेणा
__ गत्यो पविष्टसत्त्र (जिनेश्वरसूरि-कथाकोष-परिशिष्ट पृ.१२.)
श्री दुर्लभराजश्च पञ्चाशरीय देवगृहे युष्माकमागमनमालोक्यते । (युगप्रधानाचार्य गुर्वावलि-पृ.३) अणहिलवाडए नाडय व्व दंसिय सुपत्तसंदोहे। पउरपए बहुकविदूसगे य सन्नायगाणुगए ।। ६५ सढियदुल्लहराए सरसइ अंकोवसोहिए सुहए। मज्झे रायसहं परिसिऊण लोयागमाणुमयं ॥ ६६
(गणधरसार्द्धशतक-श्री जिनदत्तसूरि, पद्य ६५, ६६)
(क)
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