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युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
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भगवान महावीर स्वामी का जय हो। सभी जीवों को तारनेवाला, मोक्षमार्ग के प्रकाशक, कुमार्गका नाश करनेवाला, सर्व भयों का घातक ऐसा वीरप्रभु का शासन आज पर्यन्त विजयी हो रहा है।
तथा सभी तीर्थंकरों एवं गणधर ऋषभसेन आदि से प्रार्थना करते हैं कि श्री संघ की पवित्र अभिलाषाओं को पूर्ण करें। और उनका कल्याण करें ।
अन्त में इस स्तोत्र का महत्त्व बताते हैं कि इस स्तोत्र को जो मनुष्य त्रिकाल ( प्रातः, दोपहर तथा संध्या समय) पढ़ता है ( स्मरण करता है) उसके लिये जगत में कुछ भी दुःसाध्य नहीं है। ग्रंथकार जिनदत्तसूरिजी कहते हैं कि जो भी प्राणी तीर्थंकर की आज्ञा में रहता है, वह इसलोक में सुखी होकर सर्व कर्मो का क्षय करके, शाश्वत मोक्षसुख को प्राप्त करता है ।
इस स्तोत्र में हमें यह देखने को मिलता है कि गुरुदेव के हृदय में प्राणी मात्र के प्रति करुणा का श्रोत बहता था, जनकल्याण की और संघरक्षा की भावना हमेशा प्रवाहित होती रहती थी ।
इस स्तोत्र में गुरुजनों की स्तुति, नवपद का स्वरूप तथा सभी देव - देवियों से संघरक्षार्थ प्रार्थना की गई है।
अलंकार :
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आचार्य जिनदत्तसूरिजी ने इस स्तोत्र को सुंदर बनाने के लिये रूपक अलंकार का सुंदर पुट दिया है।
उदाहरण :
यही है ।
"तं जयउ जए तित्थं, जमित्थ तित्थाहिवेण वीरेण "
तित्थं चतुर्विध संघ रूप तीर्थ में रूपक अलंकार निहित है।
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४. सुगुरु- पारतंत्र्य स्तोत्र
इस स्तोत्र का प्रसिद्ध अपरनाम "मयरहियं" है । सप्तस्मरण में पंचम स्मरण
इस स्तोत्र में २१ पद्य हैं, इसमें गाथा छन्द का प्रयोग किया गया है ।
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