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युगप्रधान आ . जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान सिरिवद्धमाणवरनाणचरणदंसणमणीणं जलनिहिणो । तिहुयणपहुणो पडिहणियसत्तुणो सत्तमो सीसो ॥
( गणधर सार्धशतक गाथा क्रमांक - ३ ) (सुगुरु गुण संथव सत्तरिया गाथा क्रमांक - ३ )
(२) कुछ पद्यों की पंक्तियों में परिवर्तन देखने को मिलता है ।
जैसे कि
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'गणधर सार्धशतक' का २४ वीं गाथा की प्रथम पंक्ति और 'सुगुरु गुण संथव सत्तरिया'की २४ वीं गाथा की प्रथम पंक्ति में साम्य है जब कि दूसरी पंक्ति में सामान्य अन्तर है ।
(३) 'गणधर सार्ध शतक' की ३४ वीं गाथा 'सुगुरु गुण संथव सत्तरिया' की ३२ वीं गाथा की प्रथम पंक्ति के समान है। दूसरी पंक्ति के प्रथम चरण अलग-अलग एवं दूसरा समान है ।
(४) "गणधर सार्ध शतक" की ४० वीं गाथा 'सुगुरु गुण संथव सत्तरिया' की ४० वीं गाथा में अर्थ साम्य तो है परन्तु शब्दों में अन्तर देखने को मिलता है।
(५) गणधर सार्धशतक की ६० वीं गाथा और सुगुरु गुण संथव सत्तरिया की ४७ वीं गाथा के शब्दों में अन्तर है।
(६) गणधर सार्ध शतक के ४६ पद्य के बाद तथा सुगुरु गुण संथव सत्तरिया के ४१ पद्य के बाद पद्यों की समानता कम ही दिखाई देती है ।
उपरोक्त विवरण एवं अध्ययनोपरान्त संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि यह लघुकाय पुस्तिका मात्र देखने में छोटी है परन्तु आचार्यश्रीनी ने अपनी तपस्या के अलौकिक एवं अद्भुत चमत्कारों को इसमें बड़ी चतुराई के साथ पिरोया है। लोककल्याण ही समाज का सबसे बड़ा धर्म है। इसकी रचना भी दादासाहब ने जनकल्याण के लिए की है। श्रद्धा और विश्वास ही सबसे बड़ा ईश्वरत्व है। इस श्रद्धा और विश्वास के साथ इसका पठन-पाठन एवं स्तवन करेगा उसके सभी पाप नष्ट हो जायेंगे ।
शीर्षक की दृष्टि से देखने से पता लगता है कि इसमें ७० गाथा ही होनी चाहिए। परन्तु सुगुरु गुण संभव सत्तरिया में कुल ७५ श्लोक देखने को मिलते हैं। शायद वह आचार्यश्री की अपनी रचना होगी या किसी अन्य ने उनको जोड़ा है।
प्रस्तुत ग्रन्थ लोगों के कल्याण के लिए आचार्य श्री द्वारा रचित है। आचार्य श्री का मुख्य उद्देश्य था लोगों में अहिंसा धर्म इत्यादि का प्रचार एवं प्रसार । इस प्रकार
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