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युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
१०३ जो कुछ भी ज्ञानोपदेश दिया गया है वह सभी बड़े ही सौम्य एवं शान्तिपूर्व वातावरण एवं शान्तिपूर्वक दिया गया है। सम्पूर्ण रचना में ज्ञानोपदेश एवं “गुरु गुण-स्तुति' का वर्णन है। अतएव शान्त रस का ही स्पष्ट स्वरूप झलकता है। क्योंकि श्रावकों को हमेशा धर्माचरण में शान्त एवं दत्तचित्त होने का उपदेश दिया गया है।
अलंकार ही काव्य को सुशोभित करनेवाले अलंकरण या साधनमात्र है । इसलिए यथोचित अलंकारों का भी उपयोग दादासाहबने अपने ग्रन्थ में किया है । रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा एवं श्लेष भी कहीं-कहीं दिखाई पड़ते हैं।
प्रस्तुत “सुगुरु गुण संथव सत्तरिया में प्रारम्भ से लेकर अन्तिम गाथा तक गाथा (आर्या) छन्द का प्रयोग किया गया है। उदाहरण स्वरूप
अजियाइजिणिंदाणं जणियाणंदाण पणयपाणीणं। थुणिमोऽदीणमणोहं गणहारिणं गुरुगणोहं ।। २ ॥
“सुगुरु गुण संथव सत्तरिया'
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३. सर्वाधिष्ठायी स्तोत्र इस स्तोत्र का प्रसिद्ध और अपरनाम “तंजयउ" है। क्योंकि तं जयउ' शब्द आदि में है। सप्तस्मरण में चतुर्थ स्मरण तंजयउ है । २६ पद्य का यह स्तोत्र प्राकृत भाषा में रचित है, इसमें “गाथा" छन्द का प्रयोग किया गया है।
इस स्तोत्र पर अनेक वृत्तियाँ लिखी गई हैं तथा खरतरगच्छीय पंचप्रतिक्रमण सूत्र में तथा सप्तस्मरण में यह स्तोत्र उपलब्ध है। इसकी संस्कृत छाया और हिन्दी अनुवाद भी उपलब्ध है। इस स्तोत्र के रचनाकाल की विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं
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१८.
(क)
प.पू.श्री जिनराजसूरिजी के शिष्य उपाध्याय श्री जयसागरजी ने वि.सं. १४९५ के लगभग टीका रची है। श्री समयसुन्दर म.सा. ने वि.सं. १६९५ में टीका रची है। प. कृष्ण शर्मा ने सुबोधिनी टीका व हिन्दी अनुवाद किया है। महोपाध्याय साधुकीर्ति कृत बालावबोध (यति डुंगलसी भण्डार, जैसलमेर)
(घ)
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