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युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
१०१ जीवादि नव ६ तत्त्वों के ज्ञाता, पंचाचार १७ का पालन करनेवाले, जिनाज्ञा का पालन करने में तत्पर. प्रमादरहित, अनवद्य निष्पाप बोलनेवाले, पूर्वाचायों की आज्ञानुसार वर्तन करनेवाले, सिद्धान्त सूत्रों के ज्ञाता, दुर्वचनों को सहन करनेवाले, बालजीवों (अज्ञानी)को बोध देकर सन्मार्ग में लानेवाले ऐसे पूर्वाचार्य उपाध्याय सच्चे साधु होते
इन्हीं विवरणों के साथ आचार्यश्री हमारे धर्मगुरुओं की पहचान कराते हैं। (६२-७४)
उपर्युक्त कृति में संयम जीवन की महत्ता, धर्मगुरुओं के आचार विचार तथा सुवि'हत सये मुनि की पहचान आदि विषयों का निरूपण किया गया है।
स ग्रन्थ को जो भी श्रद्धा से स्मरण करेगा, पढ़ेगा वह सभी सांसारिक एवं आधि-व्याधि के दुःख द्वन्द्वों से मुक्ति प्राप्त करेगा। आचार्य श्री द्वारा निर्मित यह लघुकाय “सुगुरु गुण संथव सत्तरिया'नामक ग्रन्थ भावि मानव समाज के लिए आलंबन बन गया है।
यद्यपि यह कृति सर्वथा नवीन नहीं कही जा सकती क्योंकि “गणधर सार्धशतक' की बहुत सी गाथाएँ इस में भी मिलती हैं, विषय और भाषा में भी समानता है। दोनों के साम्य का निरूपण निम्न प्रकार से किया जा सकता है। दोनों ग्रन्थों की समानता :
(१) लगभग ४० गाथा गणधर सार्धशतक की "सुगुरु गुण संथव सत्तरिया" में ज्यों की त्यों पायी जाती है।
जैसे कि
“जीवाऽजीवा पूण्णपावाऽऽसंवरो य निज्जरणा। बंधो मुक्खो य तहा नव तत्ता हुंती नायव्वा ।।" (गाथा-१, नवतत्त्व प्रकरण) अर्थ -जीव तत्त्व,अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध, मोक्ष ये नव तत्त्व जानना चाहिए। पंचाचार-ज्ञानाचार, दर्शनाचार, तपाचार, चारित्राचार, वीर्याचार ये पाँच पंचाचार के भेद है पंचाचार का वर्णन देखे-संदेहदोलावली कृति में।
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