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________________ १०० युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान निय-जणणि-वयण-करणंमि उज्जओ दिट्ठिवाय-पढणत्थं । तोसलिपुत्तंतगओ ढड्डर-सड्डाणुमग्गेण ॥ ३२ ॥ माता की आज्ञानुसार आर्यरक्षित दृष्टिवाद सूत्र का अध्ययन करने के लिए तोशलिपुत्र नामक आचार्य के पास ढड्डर नामक श्रावक के साथ गये। हमारा देश एक धार्मिक एवं धर्मप्रधान देश है। यहाँ की अपनी सबसे बड़ी विशिष्टता यह है कि मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, आचार्यदेवो भव अर्थत् यहाँ की प्रजा माता, पिता और गुरु को प्राचीनकाल से पूजती चली आयी है। उनके आदर सत्कार में कभी किसी प्रकार की कमी फटकने भी नहीं पाती। उसी परम्परा का निर्वाह यहाँ भी बताया गया है । प्रसंगानुसार गुरु के पास पहुंचने के बाद गुरु ने पूछा- तुम्हारे धर्मगुरु कौन है ? विनयपूर्वक उत्तर दिया- ढङ्कर श्रावक। सिंहवत् संसार का परित्याग करके एवं चारित्र का पालन करते हुए साढे नव पूर्व का ज्ञान प्राप्त किया। एक बार महाविदेह क्षेत्र में तीर्थंकर भगवान से शक्र ने पूछा- निगोद का स्वरूप कौन जानता है ' तो भगवान ने कहा- भरतक्षेत्र में आर्यरक्षित सूरिजी निगोद का स्वरूप जानते हैं। इन्द्र ब्राह्मण का रूप बनाकर वहाँ आया और आर्यरक्षितसूरिजीने देह प्रमाण जानकर उनके स्वरूप को बतलाते हुए कहा- आप शक्र हो। बाद में निगोद की प्ररूपणा(व्याख्या) की। शक्र अतीव प्रसन्न हुआ और विनय पूर्वक स्तुति करके कहा- आप प्राणियों को अक्षत अर्थात् परमपद देने में समर्थ हो । इसलिए संसार के सांसारिक लोगों को इसके महत्त्व को समझा दें। संसार का कल्याण कीजिए। (३२-४१) युगप्रधान आचार्य श्रीने साधुजीवन के सभी पक्षों को अच्छी तरह से देखा है, उसी का वर्णन करते हुए कहते हैं कि सुविहित साधु पाँच समिति, तीन गुप्ति अर्थात् ‘अष्ट' १५ प्रवचनमाता का पालन करने में तत्पर, वसतिवास में रहनेवाले, परिमित आहार करनेवाले, विभूषणा अर्थात् आभूषण रहित, बाह्य और आभ्यन्तर बारह प्रकार के तप का पालन करनेवाले, यतनापूर्वक आहार, पानी, वस्त्र और वसति को शुद्ध करते हुए विचरण करते हैं। १५. जैन दर्शन में अष्ट प्रवचनमाता के नाम-(१) इर्या समिति, भाषा समिति. एषणा समिति, आदानभाण्डमात्र निक्षेपण समिति, पारिष्ठापनिका समिति, मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति, कुल मिलाकर आठ नाम हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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