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युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
ग्रन्थ में वर्णित संयमी जीवन के विषय को परिपुष्ट करते हुए कहते हैं कि
संयम और नियम पूर्वक जीवन-यापन करना बड़ा ही दुष्कर है । यह मार्ग कंटकाकीर्ण है कई मुनियों ने तो इस मार्ग को तेज तलवार की धार के समान बताया है। वज्रस्वामी की वीतरागता को उभारने हेतु नारी के हावभावादि के वर्णन में सूरिजी की मौलिकता की झलक स्पष्ट दिखाई पड़ती है।
कवि नारी के हावभावादि का वर्णन करते हुए कहते हैं कि
इन्द्रधनुष जैसे विद्युत की तरह भौंहों से नेत्र कटाक्ष करनेवाली, पुष्ट अंगो की प्रतिष्ठावाली, श्रेष्ठ चेष्टाओं से आकर्षित करनेवाली, अपने गुणों को सुनकर उत्कंठित मनवाली, अपने से प्राप्त धन, सुवर्ण, रत्नों से युक्त ऐसी कन्या का साथ मिलने पर भी युवावस्था को प्राप्त श्री वज्रस्वामी तनिक भी मोहित नहीं हुए।
अवान्तर प्रसंग के रूप में स्थूलिभद्र कोशा कथा के द्वारा संयम की महत्ता प्रदर्शित करते हुए कहते है कि
। स्थूलिभद्र मुनि जो कोशा वैश्या के संग निवास करके भी मुनियों के बीच प्रशंसा को प्राप्त किये ऐसे मुनि धन्य हैं। क्योंकि “संसर्गजा दोषा गुणा भवन्ति, ते निर्गुणं प्राप्य भवन्ति दोषा॥”
___अर्थत् ‘संसर्ग से दोष गुण हो जाते हैं । गुण दोषों में परिणत हो जाते हैं। वेश्याओं के मध्य निवास करके शुद्धता का और ब्रह्मचर्य का पालन करना तो बड़ा ही दुष्कर कार्य है। उसमें भी कोशा की लीलाएं तो कामरूपी प्रदीप्त दीपशिखा के समान थी। स्नेहयुक्त नेत्रोंवाली ऐसी कोशा के साथ रहते हुए भी स्थूलिभद्रमुनि में कामविकार उत्पन्न न हो सका। ऐसे स्थूलिभद्रमुनिने कोशा के संसर्ग में रहकर उसके जीवन को आमूल-चूल परिवर्तित कर दिया। जितना ही उसमें तीव्र राग भावना थी उसके विपरीत आपके संसर्गने ही पहले की अपेक्षा उसे अधिक वैरागी बना दिया । यहाँ पर राग एवं विराग के माध्यम से विरोधाभास अलंकार का सुन्दर चित्रण किया गया है।
जो विश्व के ग्रहों में सूर्य के समान अपनी प्रभा को प्रकाशित करते हैं, जिन्होने तिमिराच्छन्न वातावरण को प्रभायुक्त बना दिया ऐसे अन्तिम चतुर्दश-पूर्वी, चरित्रयुक्त ज्ञानरूपी लक्ष्मी जहाँ निवास करती है ऐसे गुणगण युक्त संयमी स्थूलिभद्र मुनि के प्रसंग का यहाँ निरूपण किया गया है।
माता के वचनों का पालन करने में तत्पर आज्ञाकारी पुत्र आर्यरक्षित सूरिजी की जीवन घटना पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं कि
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