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________________ युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान व्यन्तर का प्रयोग किया गया परन्तु सब निष्फल रहा । मन्त्र तो मात्र शब्द स्वरूप होता है। परन्तु साधकों की यौगिक प्रक्रिया के द्वारा एवं पूर्ण प्रयत्नों से ही मन्त्र प्रभावशाली बनते हैं। अतएव युगप्रधान आचार्य श्री जिनदत्तसूरिजी ने उस श्रावक के दुःख दूर करने के लिए ही पूर्वाचायों के गुणों का वर्णन संकीर्तनात्मक रूप में वर्णन करके दे दिया और उसका पठन तथा ध्यान करने के लिए कहा। यह भी कहा कि इस टिप्पण पर दृष्टि लगाये रखना। श्रावक ने श्रद्धाभाव से इस ग्रन्थ को स्वीकार किया। ग्रन्थ का प्रभाव अद्भत था। शब्दों के संयोजन के साथ-साथ गुरु की महिमा एवं आशीर्वाद से उन शब्दों में अद्भुत शक्ति का आविर्भाव हो गया था। कहा जाता है कि श्रावक ने गुरुवचनों में विश्वास करके ग्रन्थ पर स्थिर दृष्टि रखने से वह श्रावक दुष्ट व्यन्तर की पीड़ा से मुक्त हो गया। स्वास्थ्यलाभोपरान्त स्वस्थ होकर वह श्रावक धर्माराधन में विशिष्ट रूप से लग गया। इस प्रकार रचना हेतु की दृष्टि से यदि यह ग्रन्थ देखा जाय तो पूर्णरूपेण सिद्ध होता है कि इस ग्रन्थ की रचना आचार्यश्री ने श्रावक की व्यन्तर पीड़ा दूर करने के लिए ही की थी। “सुगुरु गुण संथव सत्तरिया' नामक ग्रन्थ की प्रथम गाथा में “आचार्य दादा साहब'' मंगलाचरण का निर्वाह करते हुए सर्वप्रथम अपने प्रथम मुनिपति श्री ऋषभ जिनेन्द्र और उनके प्रथम गणधर श्री ऋषभसेन के चरणकमलों की वन्दना करते हुए लिखते हैं: गुणमणिरोहणगिरिणो रिसहजिणिंदस्स पढम-मुणिवइणो। सिरिउसभसेण-गणहारिणोऽणहे पणिवयामि पए॥१॥ प्रस्तुत श्लोक में प्रथम तीर्थंकर एवं प्रथम गणधर की वन्दना करते हुए कहते हैं कि गुणों को उत्पन्न करते हैं अर्थात् जिस प्रकार रोहणाचल से विभिन्न प्रकार के रत्नों की उत्पत्ति हुई है उसी प्रकार प्रथम जिनपति ऋषभ जिनेन्द्र समस्त गुणों की खान है। संसार में प्रसरित विभिन्न प्रकार के गुणों की उत्पत्ति श्री ऋषभ जिनेन्द्र से हुई है। ऐसे गुणाकर श्री ऋषभसेन जिनेन्द्र और उनके प्रथम गणधर की कवि वन्दना करते हैं। ___ इस ग्रन्थ को विषय वस्तु अवलोकन दृष्टि से यदि देखा जाय तो इस ग्रन्थ में एवं गणधर सार्धशतक में कोई खास अन्तर नहीं है। फिर भी विषय-वस्तु विश्लेषण की दृष्टि से उसका निरूपण निम्न प्रकार से किया जा सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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