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युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
इस प्रकार इस ग्रन्थ अर्थात् “सुगुरु गुण-संथव सत्तरिया” (गणधर सप्ततिका)की रचना बारहवीं शताब्दी ही निर्विवाद सिद्ध होती है।
___ इस ग्रंथ की भाषा सरल और सुबोध प्राकृत है । क्लिष्ट समस्त पदों से रहित है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह भाषा जनसामान्य की होने के कारण लोकभोग्य है।
“सुगुरु गुण संथव सत्तरिया” (गणधर सप्ततिका)के शीर्षक का शाब्दिक अर्थ करने से ख्याल आता है कि यह एक ऐसा संग्रह है जिसमें अच्छे गुरु के गुणों का वर्णन सत्तर गाथाओं में किया गया है। दूसरे शब्दों में यदि “गणधर सप्ततिका'को ध्यान में लेकर शाब्दिक अर्थ किया जाय तो ऐसा अर्थ होगा कि “गणधरों के गुणों का वर्णन'' किया गया हो ऐसा ग्रन्थ।
___ इस कृति की दो हस्तप्रतियाँ उपलब्ध हैं । एक जैसलमेर में स्थित बृहद्ज्ञानभडारस्थ ताड़पत्रीय प्रति जिसकी प्रतिलिपि श्री हरिसागरसूरिजी के द्वारा की गयी है और दूसरी जैसलमेर में स्थित थाहरूशाह के भंडारस्थ कपड़े पर टिप्पणाकार में लिपिबद्ध प्रति। इनमें प्रथम प्रति को प्रमाणभूत मानकर श्री अगरचन्द नाहटा ने प्रकाशित की है। यहाँ परिशिष्ट में क्रमांक १ पर मूल एवं हिन्दी अनुवाद किया जा रहा है।
इस ग्रन्थ की रचना के हेतु के विषय में यदि विचार किया जाय तो ग्रन्थ से अध्ययन एवं उससे सम्बन्धित विवरण से स्पष्ट होता है कि यह ग्रन्थ उस समय समाज में फैले हुए दुराचार से सम्बन्धित तथा उसके परिणाम स्वरूप समाज में सर्वत्र समस्त प्रकार के आधि-व्याधि उपद्रवों के शमनार्थ प्रभावोत्पादक वर्णन किया गया है।
इस कृति के सम्बन्ध में कहा गया हैं कि “आचार्यश्री के रुद्रपल्ली विहार दौरान एक महान दुष्ट व्यन्तर से पीड़ित एक श्रावक ने सूरिजी के समक्ष अपना सम्पूर्ण दुःख व्यक्त किया। संवेदनशील आचार्य महाराज का हृदय दया एवं करुणा से उद्वेलित हो गया।'५४
श्री युगप्रधान जिनदत्तसूरि-पृ.सं.९७. खरतरगच्छ बृहद् गुर्वावलि-आचार्य जिनविजयजी, पृ.१८, पैराग्राफ-३४.
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