________________
युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
छन्द :
“युगप्रधान आचार्य श्री जिनदत्तसूरि'' रचित “गणधर सार्धशतक' में प्रारम्भ से लेकर अन्तिम गाथा तक गाथा (आर्या) छन्द का प्रयोग किया गया है।
गाथा (आर्या) छन्द की-प्रथम पंक्ति में १२ और १८ कुल मिलाकर ३० (तीस) मात्राएं होती हैं। जब कि- द्वितीय पंक्ति में १२ और १५ कुल मिलाकर २७ मात्राएं होती हैं। उदाहरण:
गुणमणिरोहणगिरिणो, रिसहजिणिंदस्स पढममुणिवइणो। सिरिउसभसेनगणहारिणोऽणहे पणिवयामि पए॥॥
२. सुगुरु -गुण-संथव-सत्तरिया (गणधर सप्ततिका)
प्रस्तुत “गणधर सप्ततिका” युगप्रधान आचार्य श्री जिनदत्तसूरि द्वारा रचित एक टिप्पण स्वरूप ग्रन्थ है जिस समय आचार्य श्री का आचार्यत्व चतुर्दिक प्रंशसा प्राप्त हो रहा था। पूर्व विवरण में कहा जा चुका है कि सम्पूर्ण भारत देश में विभिन्न प्रकार की बाधाएँ एवं अवरोध बढ़ रहे थे । चैत्यवास इत्यादि के कारण धर्मो में भी धीरे-धीरे शिथिलता तो आ ही चुकी थी परन्तु आचार्यश्री के प्रयत्नों से यह क्षति धीरे-धीरे पूर्ण होने लगी थी। परन्तु सम्पूर्ण भारत वर्ष में मन्त्र-तन्त्र का प्रयोग सर्वथा बढ़ रहा था। कभी-कभी लोग अपने छोटे-छोटे कार्यों की सिद्धि के लिए या अपने स्वार्थ साधने के लिए भूत-प्रेतादिकों की सिद्धि करके उसका अनुचित प्रयोग करते थे जो सामान्य लोगों के लिए कभी-कभी आपत्ति का कारण बन जाता था।
ऐसी ही एक कथा है इस रचना के सम्बन्ध में- एक कोई श्रावक जो किसी व्यन्तर देव से पीड़ित था उसके निवारण के लिए इसकी रचना की गयी थी।
इस ग्रन्थ के रचनासमय के विषय में कुछ निश्चित तिथि का उल्लेख कहीं से प्राप्त नहीं होता है। इसलिए दिन एवं तिथि की निश्चितता के अभाव में प्रमाण के बिना कुछ कहा नहीं जा सकता है। परन्तु यह निश्चित है कि युगप्रधानपद पर आसीन होने के बाद जब आचार्यजी रुद्रपल्ली जा रहे थे उसी समय दरम्यान इसकी रचना की गयी है और यह समय बारहवीं शताब्दी का है क्योंकि श्री जिनदत्तसूरि का युग बरहवीं शताब्दी निश्चित है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org