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युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान विरोधाभास अलंकार :
तिजगय-गय-जीवबंधूणं जो बंधू बुद्धिसागरो सूरि ।
कय-वायरणो वि न जो विवाय-रण-कारओ जाओ ॥ ६९ ।। यहाँ पर व्याकरण की रचना करने पर भी वे विवाद रणकारक नहीं बनते है इसलिए विरोधाभास अलंकार है। क्योंकि-कयवायरणो अर्थात् किया है व्याकरणविशेष जिसने ऐसे बुद्धिसागरसूरि विवादरूप रण करनेवाले नहीं हुए हैं। पूर्णोपमालंकार :
तेसिं पयपउमसेवारसिओ भमरु व्व सव्व-भम-रहिओ। ससमय-परसमय-पयत्थ-सत्थवित्थारण-समत्थो । ६४ ॥ अणहिलवाडए नाडइच्च दंसिय सुपत्त संदोहे।
पउरपए बहुकविदूसगे य सन्नायगाणुगए ।। ६५ ।। यहाँ पर “पदपउम' = “पादपद्म” अर्थात् पैर है कमल ऐसे पूर्णोपमालंकार
सूरिणाम
सूरिजी ने अणहिलवाड़ की नाटक से उपमा दी है। राजा दुर्लभराज को नायक माना है। मुख्य-मुख्य व्यक्तियों को पात्र माना है। सुख सम्पत्तिपूर्व हाव-भाव विलास से पूर्व व्यक्तियों को विदूषक माना है। इस प्रकार के नाटक से पूर्णोपमालंकार है। (गाथा६५) श्लेषालंकार :
आयार-वियारण-वयण-चंदिमा-दलिय-सयल-संतावो। सीलंको हरिणंकु व्व सहइ कुमुयं वियासंतो॥६० ॥ कुमुयं वियासन्तो = कुमुद विकासयन् ! कुमुयम् (१) कमल को
(२) पृथ्वी को यहाँ पर राजा को कमल के पक्ष में चन्द्र तथा पृथ्वी के पक्ष में राजा के स्वरूप में माना गया है। और राजा कुमुद के दो अर्थों के साथ अलग-अलग अर्थों में प्रयुक्त हुआ है । अतः श्लेषालंकार है।
अणहिल्लवाडए नाडइव्व दंसिय सुपत्त संदोहे।
पउरपए बहुकविदूसगेय सन्नायगाणुगए॥६५॥ बहुकविदूसगेय :- बहुकविदूसगे यहाँ पर यह दो अर्थों में प्रयुक्त हुआ है।
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