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युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
९१ इस प्रकार आचार्य श्री जिनदत्तसूरिने उक्त उद्देश्यों को सफलतापूर्वक निरूपित किया है। “गणधर सार्द्धशतक' अत्यन्त उच्च कोटि का ग्रन्थ है। इसका स्थान गुजरात के इतिहास की दृष्टि से भी बहुत ही महत्वपूर्ण है। क्योंकि गुर्जर भूमि के लिए “गुजरत्ता' शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग आपने ही इस ग्रन्थ की गाथा में किया है । १२
प्रस्तुत ग्रन्थ की सार्थकता एवं फलश्रुति का वर्णन करते हुए युगप्रधान आचार्य श्री “जिनदत्तसूरि" कहते हैं कि जो भी भव्य जीव इस ग्रन्थ को मनसा, वाचा, कर्मणा अध्ययन कर मुनियों से प्राप्त शिक्षाओं को अपने जीवन में उतारेंगे, उसका उचित उपयोग करेंगे, वे भ्रमणरूपी संसार के आवागमन से मुक्त होकर परम पद को प्राप्त करेंगे। अर्थात् मोक्षलक्ष्मी को प्राप्त करेंगे। यही इस ग्रन्थ की फलश्रुति है।
प्रस्तुत ग्रन्थ मात्र धार्मिक प्रचार-प्रसार का साधन ही नहीं है। अपितु तत्कालीन इतिहास, सामाजिक तथा धार्मिक स्थिति और कला साहित्य इत्यादि का सम्पूर्णरूपेण विवरण देने वाला ग्रन्थ है। अलंकार :
आचार्य जिनदत्तसूरि ने अपने ग्रन्थ में किसी भी प्रकार की शिथिलता को आने नहीं दिया है। इसी कारण काव्यांगो को अलंकार पक्ष पर भी विशिष्ट ध्यान दिया है । ग्रन्थ में अनेक अलंकारों का प्रयोग किया गया है। जिससे वकतव्य वस्तु अधिक सुस्पष्ट होकर हमारे सम्मुख प्रकट होती है।
श्लेष, उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, अतिशयोक्ति तथा विरोधाभास इत्यादि अलंकारों का प्रयोग बड़ा ही सुन्दर हुआ है। साथ में शब्दालंकारों में अनुप्रास की छटा देखते ही बनती है। गुरुगुण वर्णन में रूपक और उपमा की भरमार है। अनुप्रास :
सपरे सिंहियकए सुकय जोगउ
जोग्गयं दडु ।। १८॥ यहाँ पर स वर्ण एवं ग वर्ण का वारंवार उच्चारण होने से अनुप्रास अलंकार है।
१२.
युगप्रधान जिनदत्तसूरिजी-अगरचंदजी नाहटा-३४, पृ.६६
“परिहरिय गुरुकमागय क्खत्ताए वि गुजरत्ताए। वसहि निवासो जेहि फुडीकओ गुज्जरत्ताए ।"
“गणधर सार्धशतकम्', पृद्य-१, ६८.
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