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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन
खाने को कोदों तक न दिया कर दिया बन्द तहखाने में, दासी ने समझाया भारी पर आई नहीं समझाने में,-
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वह भूखी-प्यासी पीड़ा में, थी रह रह तड़प रही पल-पल। अधरों पर पपड़ी जमी हुई, । पर, पास न था थोड़ा भी जल॥२
*** अनायास एक दिन तीर्थंकर महावीर अनेक वन, ग्राम और नगरों में विचरण करते हुए कौशाम्बी नगरी में पहुँचे और वहाँ से निकटवर्ती वन में ध्यान करने चले गये। ध्यान मुद्रा से जागृत होते ही आहार के लिए नगरी में प्रवेश किया। प्रभु ने एक अति विकट अभिग्रह धारण किया
"द्रव्य से उड़द के बाकुले हो, सूप के कोने मे, हो क्षेत्र से दाता का एक पैर देहली के अन्दर वह एक बाहर हो
कालसे भिक्षाचारी की अतिक्रान्त वेला हो, भाव से राजकन्या हो, दासत्व प्राप्त हो, श्रृंखला-बद्ध हो, सिर से मुण्डित हो, रूदन करती हो, तीन दीन की उपवासी हो,
ऐसे संयोग मुझे मिलेंगे तभी भिक्षा ग्रहण करूँगा, अन्यथा छ: मास तक मुझे भिक्षा नहिं लेना हैं।" ३
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सती चंदनबाला ने सुनाकि भगवान महावीर नगरी में पधारे हैं। उनके मनमें भावना हुई कि मैं आहारदान दूं, किन्तु वह तलघर की जेल में पड़ी थी, बेडियाँ उसके पावों में थी । वह चिन्ता में पड़ गयी। परंतु उसके पुण्य का उदय आया और उसकी भावना फली भूती हुई। ठीक भी है -“यादृशी भावना यस्य सिद्धि र्भवति तादृशी। संयोग से मुनिराज उधर ही आ गये । चंदना के बन्धन टूट गये और उसने शुद्धिपूर्वक
"त्रिशलानंदन महावीर", कवि हजारीलाल, पृ.६४ "श्रमण भगवान महावीर', कवि योधेयजी, सोपान-७, पृ.२६९ वही, पृ.२७२ आवश्यक चूर्णि, प्रथम भाग, पत्र ३१६-३१७, आवश्यक नियुक्ति मलयगिरिवृत्ति, पत्र सं.२९४-२९५, श्री कल्प सूत्रार्थ प्रबोधिनी पृ.१५४ दिगम्बर मतानुसार कौदे चावल (बासी चावल) प्रभु को आहार में दिये।
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