SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 94
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन शब्द न मुखसे फूट रहे थे, कष्ट भर गया, वर्धमान को बाहों में भर कर ली सिसकी। सारी काया काँप रही थी, जोर जोर से, तोड़-फोड़ भीतर को, निकलती बरबस हिंचकी ॥ १ भाई नन्दीवर्धन दुःखी स्वर में अनुज वर्धमान से बोले " बन्धु ! स्वजन अपने स्वजन के घाव पर कभी नमक नहीं छिड़कता । किन्तु मरहम पट्टी कर घाव को भरने की चेष्टा करता है । तुम्हारे जैसा समर्थ विवेकी एवं करूणाशील अनुज अग्रज के घावों को और गहरा करे-क्या यह उपयुक्त है ? उधर माता-पिता के वियोग का दुःख, राज्य का गुरूत्तर उत्तरदायित्व और इधर तुम मुझे एकाकी छोड़कर जाना चाहते हो ? क्या मेरी स्थिति विकट नहीं बन जायेगी ? व्यवस्था चक्र गड़बड़ा जायेगा और चिन्ता तथा परेशानियों के पहाड़ मुझ पर टूट पडेंगे। जब तुम अठ्ठाईस वर्ष माता-पिता की सेवा के लिए रुके रहे तो मेरे लिए भी कुछ नहीं रूक सकते ?” अग्रज के शब्दों में टीस थी, जो वर्धमान के हृदय को बींध गई। उनकी वाणी अवरूद्ध हो गई। इसी भावना का स्पष्टीकरण कवि ने काव्य-शैली में सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया है - वर्धमान बोले फिर अपना शीश झुकाकर आज्ञा मिलने पर ही आगे कदम धरूँगा । १. किन्तु हृदय में जैसे कोई कोंच रहा हैबीत रहे पलको में कैसे पकड़ सकूँगा ॥ २ "" वर्धमान ने अग्रज के वचन का स्वीकार करते हुए अपनी मनोभावना स्पष्ट की, "मैं आपकी भावना का आदर कर दो वर्ष तक घर में और रहूँगा, किन्तु गृहसम्बन्धी प्रवृत्तियों से बिलकुल दूर। घर में मेरा होना, न होना एक जैसा रहेगा। मेरे निमित्त कुछ भी आरम्भ - समारंभ न हो, मैं एकान्त साधना में ही अपना समय व्यतीत करूँगा ।' नदीवर्धन ने दबे स्वर से वर्धमान की शर्त स्वीकार कर ली, यह सोचकर कि घर में अनुज की उपस्थिति मात्र मुझे अपना कार्य सम्भालने में बल देती रहेगी । प्रत्येक क्षण अप्रमाद और त्याग में बिताने का आग्रह रखनेवाले वर्धमान दो ७९ श्रमण भगवान महावीर : कवि अभयकुमार योधेय, तृतीयसोपान, पृ.११७ वही, पृ. ११९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002766
Book TitleMahavira Prabandh Kavyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyagunashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy