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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन महा विवेकी, शुभ-लश्रणाश्रयी, कला-गुणाधार, अपार विक्रमी प्रसंक्त थे वे व्रत-शील-ध्यान में,
अजस्त्र ही सम्यक दृष्टि-युक्त थे। प्रजा वत्सलता:
राजा को प्रजा के प्रति अटूट प्रेम था। वे प्रजा के सुख में सुखी और प्रजा के दुःख में दुःखी रहते थे। दीन-दुःखीजनों के आश्रयदाता थे। प्यासे को पानी देना, भूखे को भोजन देना, उसी में ही उन्हें आनन्द मिलता था। इसी प्रकार प्रजावत्सलता का गुण उनमें कूट-कूट के भरा था -
गृह में भी करते गौ सेवा, द्विजगण को भोजन देते। सब भृत्यों को खिला पिलाकर शुचि आहार स्वयं लेते॥२
तथैव सर्वज्ञ न भूमि-पाल थे, न जानते थे इतना कदापि वे, नकार होती किस भाँति की, अहो। अनाथ को, आश्रित को, अभाग्य को -३
*** उसी सभा में अहमिंद्र - से लसे, नरेन्द्र थे, देख जिन्हें तुरन्त ही न स्त्रंश होते रिपु-शास्त्र ही वरन् दुःखी नरों को दुःख-दैव्य भागते ॥
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“वर्धमान' : कवि अनूपशर्मा, प्रथम सर्ग, पद-२९, पृ.४२ भगवान महावीर : कवि शर्माजी, “जन्मधाम", द्वितीय सर्ग, पृ.१७ वर्धमान : कवि अनूपशर्मा, प्रथम सर्ग, पद-३७, पृ.४४ वही, पद-३४, पृ.४३
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