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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन
जीवन के विचार पक्षसे भी अधिक महत्वपूर्ण है आचारपक्ष । आचार की पवित्रता और विशुद्धि के लिए प्रभुने अहिंसा और अपरिग्रह का संदेश दिया । क्रूरता
और संग्रहवृत्ति सगी बहन है। जहाँ संग्रहवृत्ति है, वहाँ उनके अर्जन और रक्षण के लिए क्रूरता का जन्म होता है। और जीवन के समस्त दोषों एवं दुर्गुणों का आविर्भाव भी यहीं होता है । करुणावतार महावीर ने इन्हीं दोनों दोषों को जीवन की अशुद्धि का मूल मानकर दया और संतोष अथवा अहिंसा और अनेकान्त का संदेश दिया।
सामाजिक जीवन की उपेक्षित शक्ति नारी के नवजागरण का अभियान महावीर ने पुनः प्रारंभ किया। आर्या चंदना के नेतृत्व में उन्होनें नारी जाति में ज्ञान, शिक्षा, सद्भाव और तपस्या का बीजांकुर किया। वह केवल सामाजिक क्रान्ति ही नहीं, अपितु एक महान शाश्वतधर्म की जागृति भी थी।
___ सामाजिक जीवन में परस्पर सद्भाव और प्रेम का वातावरण बनाने के लिए ऐसे कुछ उदाहरण भगवान महावीरने प्रस्तुत किए हैं, जो बहुत ही प्रेरक एवं मार्गदर्शक हैं। राजाओं के विग्रह, समाज के कलह और मनमुटाव के प्रसंगो की जड़ को भी उन्होने बड़ी सूक्ष्मता से पकड़ा। और उसके कुपरिणामों से मानव जाति को उबारा।
__इस प्रकार श्रमण भगवान महावीर का तीस वर्ष का तीर्थंकर जीवन बहुमुखी एवं बहुकृतित्व-संपन्न रहा है। एक महान धर्मशास्ता, सत्योपदेशक, करुणावतार और परम साधक का जीवन है वह । उनके जीवन में साधना का जो अखण्ड दीप जला वह आज भी प्रज्वलित है। भगवान ने अंधकार में भटकनेवालों को वह ज्ञान-ज्योति प्रदान की, जिसे पाकर हर आत्मा ज्योति-स्वरूप बन जाता है। अन्तिम देशना व निर्वाणः
जीवन का बहत्तरवां वर्ष उनकी संसार यात्रा का अन्तिम वर्ष था। अन्तिम वर्षावास पावापुरी में हस्तिपालराजा की रज्जुकसभा में हुआ। कार्तिक अमावस्या से पूर्व ही उन्होने अपने सब कार्य संपन्न कर लिए थे। उस दिन वे बड़ी लम्बी देशना कर रहे थे। काशी और कौशलगणं राज्यों के नवमल्लि और नवलिष्छवि राजाओं ने प्रभुका अन्तिम उपदेश सुना । अन्य भी हजारों, श्रद्धालु हृदयों ने प्रवचनामृत का पानकर अपने को धन्य बनाया । अन्तिम उपदेश धारा में वैराग्य और कर्तव्य का जो विशिष्ट उपदेश भगवानने दिया, वह आगे चलकर उत्तराध्ययन सूत्र के रुप में संकलित किया गया। उत्तराध्ययन सूत्र उस महान साधक की सुदीर्घ साधना का नवनीत है जो अपनी साधक आत्माओं के विचार देह को परिपुष्ट कर रहे है। भगवान महावीर की यह अन्तिम वाणी
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