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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन पारणा क दाता श्वेताम्बर मतानुसार बहुल और दिगम्बर अनुसार कुल था। * किन्तु दिगम्बर ग्रन्थ उत्तर पुराण पर्व में प्रथम पारणा के दाता का नाम कूल दिया है।
सब साधना की प्रक्रियाओं के माध्यम से अन्तर शोध करते हुए एक दिन उस अनन्त सत्य को दर्शन कर लिए, उस महा प्रकाश को पा लिया। अल्पज्ञ से सर्वज्ञ बन गए थे। वह जंभिया ग्राम के कल-कल निनादकर बहती हुई ऋजुबालिका नदीका शान्त एवं पवित्र तट, सन्ध्या का समय और वैशाख शुक्ल दशमी का पावन दिन । भगवान का केवलज्ञान नक्षत्र श्वेतांबर मतानुसार उत्तरा फाल्गुनी और दिगम्बर मतानुसार मघानक्षत्र
जनकल्याण एवं हितोपदेश
भगवान महावीर जंभिया ग्राम से मध्य पावापुरी में पधारे । समवशरण (धर्म सभा)की रचना हुई। विशाल मानव समुदाय एकत्र हुआ। सुर और असुर सभी उपदेश सुनने को उपस्थित हुए। भगवान महावीर की देशना ने सुप्त आत्माओं को जगाया। भटकते हुए पथिकों को मार्ग दिखाया और फलस्वरुप चतुर्विध संघ की स्थापना हुई। उस संघ की आधारभूमि कितनी स्पष्ट और कितनी सुदृढ़ थी, जो हजारों हज़ार वात्यचक्रों में से गुजरने के बाद आज भी अपना अस्तित्व सुरक्षित रखे हुए है। आत्म, विजय, व्रत, विनय, अहिंसा, मैत्री, शील और समभाव यही तो उनके सुदृढ़ स्तम्भ थे।
चतुर्विध संघ को प्रभु ने इन्हीं तत्वों पर आचरण करने का आदेश दिया था। भगवान महावीर के श्रमण संघ का आधार भौतिक नहीं आध्यात्मिक है। वह भय और प्रलोभन के बल पर नहीं, अपितु प्रेम करुणा और आत्म जागरण के बल पर आगे बढता है और विश्व को अखण्ड आत्म-बोध का सर्व मंगल संदेश देता है।
भगवान महावीर का जीवन सक्रिय था। वे महाकाल के प्रवाह में बहते हर क्षण को जीवन की अमूल्य थाती मानते थे। इसीलिए वे कहते रहे है-“समयं गोयम मा पमायए'- “समय मात्र भी प्रमाद मत करो।" उन्होने जीवन के तीस वर्षों में जो किया, वह हजारों, लाखों वर्षों के इतिहास को बदलने में समर्थ हुआ।
१. .
श्वे.ग्र.आ.नि.गा.३२३-३२९, सत्त. द्वार. ७७ गा. १६३-१६५ और समवायांग गा. ७६-७७, दि. उत्त. पु. पर्व ४८ से ६९ और हरिवंश पुराण-७२४ गा. सन्दर्भ : जैन धर्मका मौलिक इतिहास-हस्तीमलजी म.सा., पृ.५८०
२.
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