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________________ हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन ६७ साधनापक्ष: साधना से सिद्धि मिलती है। महावीर ने अब जीवन को ब्रह्मचर्य और तप की उग्र साधना में आरूढ कर लिया । सत्य के व्याख्याता बनने से पहले वे चिन्तक बने, गंभीर अन्वेषक बने । अपने ही अन्तर की गहराईयों में उतरकर सत्य का दर्शन किया। आत्म-साधना उपदेष्टा बनने से पहले वे स्वयं उत्कृष्ट आत्म-साधक बने। साधना काल में वे शान्त एकान्त निर्जन स्थानों में जाकर ध्यान में अचल खड़े हो जाते, चिन्तन में गहरे उतर जाते । इनके इस कठोर और विस्मयकारी साधक रुप पर किसीने श्रद्धा के सुमन चढाए तो किसीने उन पर क्रूर प्रहार भी किये । अज्ञानियों ने उन्हें कष्ट दिये, संगम जैसे देवताओं ने भी छह-छह मास तक उनका पीछा किया। संगमदेव ने हर प्रकार की संभव असंभव यातनाए देकर, उस तपस्वी को साधना पथ से विचलित करने का प्रयत्न किया। किन्तु जब वह अपनी समस्त कुचेष्टाओं में असफल हो गया, तो एक दिन महावीर के समक्ष आकर खड़ा हुआ तब करुणावतार महावीर की आंखों में अनुकम्पा का अमृत झलक उठा-“संगम ! मेरे मनमें रह-रहकर एक ही वेदना की कसक उठ रही है कि तुम्हारे छह महिने तक लगातार कष्ट देने पर जहाँ मेरी साधना अग्नि परीक्षा में निखरकर तेजस्वी बनी है, वहाँ मेरे निमित्त से तुम्हारा अनिष्ट हुआ है, जीवन कलुषित हुआ है। बस यही एक विचार मेरे मन को द्रवित कर रहा है।" बारह वर्ष और छ: मास के इस साधना काल में महावीर ने अनेक दीर्घ तपस्या की। श्वेतांबरी ग्रंथ सत्तरीसय में भगवानने साडे बारह वर्ष और १५ दिन उग्र तपस्या की। आवश्यक नियुक्ति के अनुसार साढे बारह वर्ष का और हरिवंश पुराण में बारह वर्ष के तपस्या काल का उल्लेख है। दिगम्बरी ग्रन्थानुसार तिलोयपण्णत्ति में और उत्तरपुराण में भगवान की १२ वर्ष की तपस्या का वर्णन है। श्वेतांबर मतानुसार भगवान का प्रथम तप बेला से प्रारंभ हुआ। दिगम्बर मतानुसार तेला से प्रारंभ किया। भगवान के प्रथम सत्तरिसय-८४ द्वारा, गा. १७२ से १७४, आवश्यक नियुक्ति में गा. २३८ से २४०, हरिवंश पुराण ३३७ से ३४० और तिलोयपण्णत्ति-गा.६७५-६७८. सम. गा. २६., प्रव. सा. ४३ द्वार, आव. नियुक्ति, सत्त. द्वार ६३ गा. १४९, हरि.पु.गा.२१६ से २२० में प्रथम तप बेलासे और तिलो. गा. ६४४ से ६६७ में और उत्तर पुराण में प्रथम तप तेला से प्रारंभ किया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002766
Book TitleMahavira Prabandh Kavyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyagunashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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