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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन
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afa की आस्था है कि प्रभु महावीर गुणों के रत्नाकर है, धर्मरूपी रत्न के उत्पत्ति स्थान है, भव्य जीवों को एक मात्र शरण है, इन्द्रादिक देवों द्वारा पूजित है तथा स्वर्ग एवं मोक्ष के मूल कारण है। उन प्रभु का यह उत्तम एवं पवित्र चरित्र, जब तक कि इस धरातल पर से काल का अन्त न हो जाय तब तक आर्यखण्ड में सभी स्थानों में इस का प्रचार हो, प्रसिद्धि हो और संस्थित रहे यह मेरी मनोकामना है ।
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परम ज्योति महावीर
कवि धन्यकुमार जैन "सुधेश”
प्रस्तुत महाकाव्य वीर निर्वाण संवत २४८६ में परिपूर्ण किया गया है अतएव इसमें वंदना को दो तथा तेइस सर्गो के १०८ - १०८ छन्द इस प्रकार छन्द संख्या २४८६
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है । कवि मानो इस तथ्य को सूचित करते है कि जिस समय यह महाकाव्य पूर्ण किया गया, उस समय परम ज्योति महावीर का निर्वाण हुए २४८६ वर्ष हो चूके थे। इन २४८६ छंदो के अतिरिक्त ३३ छंदो की प्रस्तावना भी पृथक से लिखी है, यों कुल मिलाकर २५१९ छन्द से युक्त यह महाकाव्य है ।
मनुष्य क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार कषायों से, समरंभ, समारम्भ, आरम्भ, इन तीन पूर्वक से मन, वचन, कर्म इन तीन की सहायता से कृत, कारित, अनुमोदना इन तीन रूप अर्थात् १०८ (४ x ३ x ३ x ३ १०८) प्रकार से पाप किया करते हैं। इसी उद्देश्य से कविने महाकाव्य में प्रत्येक सर्ग में १०८ छन्द रखें हैं ।
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कवि सुधेशजी के इस महाकाव्य की एक विशेषता यह भी है कि सर्गो की संख्या २३ ही निश्चित की है, जो प्रतीति करता है कि जैन धर्म के प्रवर्तक तीर्थंकर महावीर नहीं थे, अपितु इन के पूर्व २३ तीर्थंकर और हो चूके थे, जिन्होने अपने अपने समय में जैन धर्म का प्रचार किया था ।
कालदोष से परम ज्योति महावीर के अनुयायी दो भागों में विभक्त हो गये, दिगम्बर और श्वेताम्बर । इस विभाजन के कारण जैन धर्म को अनेक हाँनियाँ उठानी पड़ी परस्पर संघर्षमें दोनों की शक्तियोंका तो अपव्यय हुआ ही, पर इस से वीर - वाणी के यथार्थ रूप पर भी कुठारघात हुआ, जिससे साहित्य में भी यत्र तत्र परस्पर विरोधी कथनों का समावेश हो गया । ऐसी स्थिति में तथ्य के निर्णय हेतु दोनों संप्रदायों के कथनों पर कविने गंभीरतापूर्वक विचार किया। कविने जन साधारण के सदुपयोग हेतु,
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