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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन
पंचोदस सर्ग में केवलज्ञान के पश्चात्, समवशरण की रचना, इन्द्रभूति शंका के निवारण के साथ धर्म के तत्वों की सैद्धांतिक चर्चा भी प्रस्तुत की है। इस सर्ग में कवि जड़-चेतन की भिन्नता को समझाते हुए उद्बोधन देते है कि
काम-क्रोध सब जड़ पदार्थ है उससे भिन्न जगत में । आत्मलीन ही रहता केवल भाषित ज्ञान सतत में ॥ १
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देश देश में भ्रमण करते हुए भगवान पावापुरी में पधारे। वहाँ उनकी अन्तिम देशना हुई। भगवान के निर्वाण आदि वर्णन किया है। पष्ठोदश सर्ग में इन्द्रादिक द्वारा भगवान की चिता सजाना, देवगण, नगरजनों का शोक, प्रभु के निर्वाण से गौतम स्वामी का विलाप, तत् पश्चात् गौतमस्वामी को केवलज्ञान प्राप्ति आदि के सजीव चित्र अंकित किए है। गौतमस्वामी के विलाप का चित्रण कविने बड़े ही सजीव ढंग से प्रस्तुत किया है जिसको पढकर श्रोताओं की आँखें छलक उठती हैं
करूण विलाप किया फिर क्षण-क्षण
प्रभु का नाम सुनाकर ।
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लगा कि जैसे बज्र गिरा हो
फूट-फूट कर रोये ।
गुरू की स्मृति में आँसू-जल से
मन का कल्मष धोये । *
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वास्तव में कविने १६ सर्गो में काव्य को लिखकर भगवान महावीर के जीवन का कोना-कोना टटोला है । कविने भगवान के जन्म से लेकर निर्वाण तक का सूक्ष्म और मार्मिक चित्रण किया है। छंद, अलंकार, मुहावरें, उपमाएँ, आदि लेकर काव्य को सुंदर बनाया है । कवि काव्य को प्रमादगुण संपन्न, भावानुगामी भाषा-शैली में चित्रण किया है। उन्होने सरल व सुबोध भाषा में भगवान महावीर की जीवनी लिखकर जैन जगत को ही नहीं साहित्य को भी अनुपम उपहार प्रदान किया है।
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'जय महावीर” : कवि माणकचन्द्रजी, सर्ग - १५,
वही, सर्ग - १६, पृ.१४१
वही
पृ. १३३,
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