________________
४६
हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन कर रहे हैं। किन्तु किसीने सर्वांश में सिन्धु को ग्रहण नहीं किया। उसी प्रकार तीर्थंकर भगवान महावीर अथाह अनन्त पारावार हैं। इनके जीवन के विभिन्न अंगो को एक नजर देख लेना भी सबके वश की बात नहीं है। अर्थात् उनके संपूर्ण रूप में जीवन को बाँधने में असमर्थ है।
कवि माणिकचन्द कृत जय महावीर काव्य में जीवन पक्ष की प्रधानता है। सैद्धांतिक पक्ष को कवि ने स्पर्श मात्र ही किया है, क्योंकि सैद्धांतिक पक्ष अभेदकारी है। सभी तीर्थंकर के साथ सैद्धांतिक बातें एक ही रही है-उनमें भेद नहीं है किन्तु जीवन पक्ष में भेद रहा है। जिस प्रकार आदिनाथ भगवान ऋषभदेव के तपोनिष्ठ जीवन की तुलना दयामूर्ति भगवान नेमिनाथ से अथवा किसी अन्य से नहीं की जा सकती, इसी प्रकार चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर के तपस्यामय जीवनकी समकक्षता दूसरे से नहीं हो सकती।
प्रस्तुत महाकाव्य को कविने सोलह सर्गो में विभाजित किया है। प्रारंभ में कविने मंगलाचरण में सर्वप्रथम महावीर की स्तुति की है। प्रथम सर्ग में कविने भगवान के जन्म से पूर्व के वातावरण का चित्रण किया है। दूसरे सर्ग में ब्राह्मण कुल में और गर्भ परिवर्तन का वर्णन, तीसरे सर्ग में राजा सिद्धार्थ के राज-भवन का और स्वप्नों का सुंदर चित्र खींचा है
सुख के बाजे नित बजते थेमनसे सुंदर सब सजते थे। कोट-कँगूरे सब थे सुंदरसुंदरता थी भीतर बाहर ॥
***
जिस समय भगवान का जन्म का समय निकट आता है, उस समय के वातावरण के अनुकूल प्रकृति का सुंदर चित्रण चतुर्थ सर्ग में कविने किया है
पेडों की फूनगी पर चिड़िया गीत मनोहर गाती। मलियानिल की पुरवाई-सी हवा गंध ले आती ॥२
***
"जय महावीर" : कवि माणकचन्दजी, सर्ग-३, पृ.३२. . वही, सर्ग-४, पृ.४२.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org