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________________ हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन पैदा हो जाती है। तात्विक उपदेश अधिक लंबे होने से काव्य के रसास्वादन में नीरसता भी आ जाती है। काव्य लिखने का कवि का मुख्य उद्देश्य जीवन की सत्य घटना का उजागर करना एवं मानवीय आदर्शो की प्रतिष्ठा करना ही रहा है। वर्तमान जीवन के संत्रास, तनाव और क्लेश के बावजूद उदात जीवन मूल्यों की खोज तलाश करना ही कवि का ध्येय रहा है। समग्रतया यह सफल महाकाव्य ही है । डॉ. गुप्तजी ने अपनी लेखनी द्वारा महावीर के सिद्धांतो एवं आदर्शों को जनजन में प्रसारित करने का सफल प्रयास किया है वह अनुमोदनीय है । उन्होंने काव्य में अहिंसा पर जोर देते हुए लिखा है कि महावीर ने अहिंसा तत्व की जितनी विस्तृत, सूक्ष्म तथा गहन मीमांसा की है उतनी महावीर से पूर्व अन्य धर्म प्रर्वतकों व महापुरुषों ने उसकी उपादेयता पर शायद ही उतना प्रकाश डाला हो । महावीर ने केवल पुरूषों के सामाजिक जीवन पर ध्यान देकर उन्हें सभी प्रकार के जन्म सिद्ध अधिकार पाने के लिए सबल और सचेष्ट ही नहीं किया, वरन उसके साथ ही नारी को धार्मिक क्षेत्र में पुरूष के समान अधिकार प्रदान कर चतुर्विध संघ की स्थापना की । सामाजिक जीवन में उन्होने श्रम और समता पर अधिक बल दिया है। भगवान महावीरने दया, प्रेम, ममता करूणा आदि प्रस्थापित करके विश्व को “जिओ और जीने दो का महान संदेश दिया । इस प्रकार कविने महावीर के सामाजिक और आध्यात्मिक वास्तविक जीवनदर्शन का उद्घोष जनता के समक्ष प्रस्तुत किया। कवि स्वयं जनता को संबोधन करते हुए कहा कि दूसरों की उन्नति और भलाई करना चाहते हो तो पहले स्वयं अपनी आत्मा को " बल्ब " की तरह चमकाओं वही दूसरों को चमका देगा और सब जगह भगवान महावीर की भाँति प्रकाश ही प्रकाश फैल जायेगा । भगवान महावीर की तरह एक नहीं अनेक बड़े बड़े छायादार वृक्ष बनो । जो चाहे सो विश्राम पा सके । तुम स्वयं अभावों व रोगों में जीकर दूसरों को स्वस्थ एवं महान नहीं बना सकते । तुम्हारे संकल्प तुम्हारी अन्तर की ध्वनी पहले दिव्य बने तभी तुम पर हित करके महावीर बन पाओगे । "" 1 कवि ने भगवान महावीर के जीवन की अनेक घटनाओं को समाज के सामने रखकर लोगों को भगवान की सहिष्णुता और सहनशक्ति से परिचित कराया । साधना काल में उपसर्गो का भगवानने कैसे शांतिपूर्वक सहन किया ? तार्डना, तर्जना, अपमान और उत्पीडन पद-पद पर होते रहे फिर भी समता के साथ इन कष्टों को कैसे झेला ? विरोधियों के प्रति भी उनके हृदय में स्नेह का सागर उमड़ता रहा । वर्षा, सर्दी, छाया तथा आँधी और तूफानों में भी उनकी साधना का दीप जलता रहा । हमें भी धूप, ४४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002766
Book TitleMahavira Prabandh Kavyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyagunashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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