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________________ हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन तीर्थंकर महावीर - -डॉ. कवि छैलविहारी गुप्त "तीर्थंकर महावीर” आठ सर्ग का सरल भाषा में लिखा गया महाकाव्य है। इसमें भगवान महावीर के लोकहितरत जीवन को, प्रसादगुण संपन्न शैली मे लिखा है। संपूर्ण ग्रंथ के वाँचन से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि कविने कविकर्मरत होने से पूर्व महावीर के जीवन पर उपलब्ध प्रायः सभी पूर्व एवं परवर्ती संदर्भो का गहरा अध्ययन किया है और ऐतिहासिक तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में ही अपनी कल्पना में उन्हें गूंथा है। देखा गया है, काव्य और इतिहास प्रायः समान्तर नहीं चल पाते, इतिहास की नीरसता और अविकल तथ्यनिष्ठा काव्य की रसवंती धारा को रुद्ध करती है, किन्तु कविने काव्य और इतिहास को एकीकृत और अन्योन्य पूरक बनाने में आशातीत सफलता प्राप्त की है। महाकाव्य में कहीं कोई ऐसा प्रसंग नहीं है जो इतिहास या परंपरा से असंगत है। इस माने में डॉ. गुप्त की काव्य-यात्रा एक अद्वितीय उपलब्धि है। कहा जाएगा कि प्रस्तुत काव्य में सहज ही तथ्य, सत्य और कल्पना की एक ऐसी त्रिमिति प्रस्तुत है जो समाज और व्यक्ति दोनों को ही कृतकृत्य करती है। कवि की लेखन-शैली उनके निश्चल और शब्दाडम्बर रहित व्यक्तित्व के अनुरूप ही है। अपनी निष्कपट वीतराग पदावली में भगवान महावीर को आहूत करते हुए लेखक ने पूरी सावधानी से काम लिया है, यह सावधानी इतनी संपूर्ण है कि इसने स्वयंमेव सहजता का रूप ले लिया है। इसलिए महाकाव्य में कई प्रसंग इतने मर्मस्पर्शी बन पड़े है कि सामान्य पाठक भी उन पर मुग्ध हुए बिना नहीं रह पाता। ___बहुधा कहा जाता रहा हैं कि भगवान के या किसी भी तीर्थंकर के जीवनवृत्त पर महाकाव्य लिखना लगभग असंभव है। जहाँ मात्र शान्त रस ही है। अन्य किसी जागतिक स्थिति की कोई संभावना नहीं हैं, वहाँ काव्य के लालित्य और उसकी सुषुमा का निर्वाह भला कैसे संभव हो सकता है ? कवियों को महावीर के जीवन में वैविध्य और साहित्य की कोई संभावनाएँ दिखाई नहीं दी थी या रचनाकारों ने उनका ठीक से आकलन नहीं किया था। डॉ. छेलबिहारी गुप्त ने उन सारी पूर्ववर्ती चुनौतियों को स्वीकार कर भगवान महावीर के जीवन को उनकी संपूर्ण गरिमा और पवित्रता के साथ प्रस्तुत किया। प्रस्तुत महाकाव्य को आठ सर्गो में विभाजित किया गया है । काव्यशास्त्र के अनुसार इस में महाकाव्य के लक्षणों का यथाविधि निर्वाह नहीं हो पाया है फिर भी Jain Education International For Private & Personal Use Only Fo www.jainelibrary.org
SR No.002766
Book TitleMahavira Prabandh Kavyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyagunashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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