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________________ हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन अविवाहित थे। कवि रघुवीरशरण “मित्र' ने “वीरायन" काव्य को भेदभाव से रहित, दोनों की मान्यताओं का समावेश करके सुंदर ढंग से काव्य की रचना की है जो पाठकों के हृदय को परिवर्तन कर दै। “दिव्य-दर्शन" सर्ग में कविने वन के देवी-देवता पशुपक्षी आदि वनचारी लोगों की भक्ति व श्रद्धा का वर्णन प्रस्तुत किया है। जड़-प्रकृति भी सजीव होकर भगवान का स्वागत करने तत्पर हो उठी है। अहिंसक जीवों को उपदेश देना, गंगा एवं वसंतऋतु का चित्रण, पिशाच प्रेत आदिशेतानों द्वारा भगवान को उत्पात तथा विजय प्राप्त करना । भगवान ने चार घाती कर्मो को क्षय करते अप्रतिहत केवलज्ञान एवं केवलदर्शन प्राप्त होने का आलेखन किया है । “ज्ञानवाणी' सर्ग में कविने इन्द्रादी देवताओं के हर्ष, समवशरण की रचना करना, तीर्थंकर का मौन, स्थान स्थान पर समवशरण की रचना करना, इन्द्रोपाय द्वारा भगवान का मौन मुखर होना, भगवान द्वारा प्राणीमात्र को ज्ञान-दान प्राप्त होना आदि के वर्णन इस सर्ग में किये है। “उद्धार" सर्ग में कविने चन्दनाको बंधन मुक्त, नारी का उद्धार, अर्जिका संघ स्थापन, जनोद्धार, जनोपकार, आदि के सुंदर और विस्तृत वर्णन किए हैं। इस "अनन्त' सर्ग में कवि मित्रने भगवान के निर्वाण प्राप्ति का उल्लेख किया है। महावीर के तीस वर्ष तक भारत में विभिन्न भागों में परिभ्रमण करते विविध प्रकार की धार्मिक प्रवृत्तियों का आयोजन करके जनता का उद्धार किया उस विहारकाल का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है। तीर्थंकर जीवन का तीसवाँ चातुर्मास भगवानने अप्पापुरी के हस्तिपाल राजा की लेखनशाला में किया। वहाँ मल्लगण के नौ राजा, लिच्छवीगण के नौ राजा तथा अन्य अनेक उपासकों को अड़तालीस घण्टों तक देशना देकर कार्तिक की अमावास्या को निर्वाण प्राप्त किया। “युगान्तर” सर्ग में कविने मोक्ष के बाद मुक्तेश्वर महावीर का प्रभाव, वीरदर्शन का जीवन में उपयोग, जैन धर्म से देश और दुनिया में उपलब्धियाँ, भगवान महावीर के पथ पर महात्मा गाँधी का अनुगमन करना, आज की परिस्थितियों को दिशादान आदि बातों का विस्तार से वर्णन किया है। कविने काव्य के माध्यम से भगवान की अमृतवाणी का पान कराकर जन-जगत को अनुपम भेटं प्रदान की है। पाठक लोग काव्य का चिन्तन मननपूर्वक करते भगवान के वचनामृत का श्रद्धापूर्वक हृदयागम करें, यही कवि की अभ्यर्थना है। कवि की रचना स्वान्तः सुखाय होते हुए भी लोकहितकारी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002766
Book TitleMahavira Prabandh Kavyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyagunashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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