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________________ ३५ हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन मग में वियोगीनी खड़ी खड़ी गाती थी जाओ जय पाओ। मेरे मनहर मेरे उपास्य ! मेरी पूजा को हो जाओ।' *** जिस समय राजमहलों को छोड़कर कुमार वन की ओर प्रस्थान कर रहे हैं, उस समय का नगरजन और परिवार का दारूण दृश्य कविने चित्रित किया है। माता त्रिशला को करूण रूदन करती हुई देखकर कुमार समजा रहे है कि बोले सन्मति माता मत रो, तुम रोओगी सब रोयेंगे। यह प्रजा तुम्हारी तुम पर है, तुम खोओगी, सब खोयेंगे। भगवान महावीरने ज्ञातखण्ड उद्यान में पहुंचकर पंच मुष्टि केश लोंच कर के दीक्षा अंगीकार की। राजा नंदीवर्धन, स्वजन एवं प्रजाजन वियोग व्यथित मन से अपने अपने घरों की ओर लौटने लगे। नंदीवर्धन बंधु-बिछोह को संभाल न सके । उनके मुखार्विन्द से वेदनापूरित उद्गार फूट पडे त्वया बिना वीर ! कथं व्रजामो? गृहे धुना शून्यवनोपमाने। ३ __ “है वर्धमान, हे बन्धु ! अब तो घर भी वन के समान बन गया है। तुम्हारे बिना मैं घर कैसे लोहूँ ?" इस प्रकार राजा नंदीवर्धन आश्वत होकर अपने कर्तव्य में लग गये, पर महावीर की सलौनी छवि उनके अन्तर में सदा अंकित रह गयी। उनके दिव्य प्रकाश में वे सदा सत्पथ पर चलते रहे। प्रस्तुत वीरायन काव्य में कविने दिगम्बर और श्वेताम्बर आम्नायों के अनुसार, तत्वों का समन्वय करके भगवान महावीर की जीवनी को लिखा है। श्वेताम्बर मतानुसार भगवान के माता-पिता का स्वर्गवास होने के पश्चात् उन्होने दीक्षाग्रहण की। किन्तु दिगम्बर मतानुसार भगवान की दीक्षा के समय माता-पिता जीवित थे। श्वेताम्बर मतानुसार भगवान विवाहित थे तथा प्रियदर्शना नामकी लड़की भी थी। दिगम्बर मतानुसार भगवान “वीरायन" : कवि मित्रजी, “वनपथ', सर्ग-१०, पृ.२५५. वही, पृ.२५७. कल्पसूत्र : सुबोधिका टीका : षष्ठ क्षण : पत्र २७५ (ले. जवाहकचंद पटनी कृत - श्री वर्धमान महावीर) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002766
Book TitleMahavira Prabandh Kavyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyagunashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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