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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन बने। इन दोनों प्रसंगो का आनंद लोगों में दीप प्रज्जवलित कर व्यक्त किया।
कवि कृति के अंत में अपने महान तपस्वी, मनीषी गुरु की वंदना करता है। अंत में अपनी लघुता-नम्रता को प्रस्तुत करते हुए कृति की त्रुटियों के लिए क्षमा याचना करता है।
जहाँ तक कृति की कथा का प्रश्न है- वह प्रचलित कथा ही है। प्रायः हर महावीर कथा-काव्य या गद्य लेखकों ने उसे ग्रहण किया है। पर कथा को अपनी कला अपने भक्तिपूर्ण मनोभावों से उसे प्रस्तुत करना ही कवि-लेखक की विशेषता होती है। यही विशेषता इस कृति में भी विद्यमान है। कवि-मुनि हैं-महावीर के पथानुगामी है। अपनी भक्ति, श्रद्धा सभी का इस प्रबंध कथा में कवि ने यथा स्थान पर समावेश किया है। भावपक्ष की दृष्टि से कथा के प्रसंग उसका शांतरस, निरूपण, बोधगम्य उपदेश, दृढ चरित्र की उपसर्ग सहन शक्ति आदि के वर्णन हैं।
कला पक्ष की दृष्टि से विचार करें तो इस प्रबंध या कथा को काव्य द्वारा प्रस्तुत करना उनकी कोमल मनोभावों की ही अभिव्यक्ति है। जब मन करूणा से भर उठे। आराध्य के प्रति भक्ति जब कुलबुलाने लगे। अनुभूति अभिव्यक्ति होने को मचल उठेतभी कविता की धारा प्रवाहित होती है। यही धारा इस कृति में मुनि के अन्तर्भाव-भक्ति को प्रवाहित करते है।
यद्यपि पुरा काव्य एक ही छंद में है पर प्रत्येक चतुष्पदी में भाव सभरता उसके प्राण है। भाषा सरल, हृदयग्राही एवं भावानुकुल है। आवश्यक व स्वतः प्रयुक्त अलंकारों का प्रयोग हुआ है-कहीं भी उन्हें भरने का प्रयत्न नहीं किया। इससे प्रत्येक पद स्वाभाविक वर्णन का प्रतीक बन गया है। चाहे आनंद की अनुभूति हो, वैराग्य के भाव हो, प्रकृति चित्रण हो, उपसर्ग की कहानी हो-सभी में भाषा भावों की अनुगामिनी बनी है। कृति में से प्रत्येक भाव के अनेक उदाहरण प्रस्तुत किए जा सकते हैं। कवि द्वारा बालक महावीर का बालवर्णन सूर के कृष्ण या तुलसी के रामबाल वर्णन की याद दिलाता है।
बालक के गर्भ-जन्म के समय की प्रकृति का सौंदर्य या तपस्यारत वीर के जंगलों की प्रकृति का वर्णन वातावरण के अनुकूल होने से सहज लगता है। यह प्रभाव वर्णन कौशलका है, जिसका आधार भाषा की चयन शक्ति है।
कृति की सर्वाधिक विशेषता इसमें दिये गये चित्र है । प्रायः प्रत्येक घटना के चित्र पूरे काव्य को चाक्षुष बनाते है, जिससे पाठक का मन महावीर के चरित्र को आँखों से हृदयंगम कर पाता है।
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