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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन सम्यकत्व धारणकर उच्च पदों पर रहा तो कभी मिथ्याज्ञान में फंसकर कष्ट भी सहन करता रहा। इस प्रकार २६ भवों को भोगता हुआ अंत में तीर्थंकर गोत्र के शुभबंध को बांधकर महावीर के रूप में जन्मे । कवि ने प्रथम ३९ पदों में इन २६ भवों की अति संक्षिप्त में प्रस्तुति की है। इन भव वर्णनों का उद्देश्य सिद्ध करता हैं कि मनुष्य को सत्य या असत्य, उच्च या नीच, स्वर्ग-नर्क, सुख-दुःख सभी पूर्व और वर्तमान कर्मो के कारण ही उपलब्ध होते हैं। कर्म को ही मूलाधार माननेवाला जैन दर्शन यह स्पष्ट करता है कि मरीचि का जीव यह जानकर भी कि उसे तीर्थंकर बनना हैं, -यहि वह तदनरूप साधना नहीं करता है तो उसे भी भव-भव भटकना पड़ता है। विभिन्न परिस्थितियों में और विपरीत परिस्थितियों में जो क्षमा, करुणा, समता और सम्यकत्व धारण नहीं कर सकता उसे नरक और तिर्यंच गति भी भोगनी पड़ती है। महावीर के ये पूर्वभव यही दर्शाते हैं कि व्यक्ति को सम्यकत्व धारण कर शुभ कार्य करने चाहिए। अन्यथा उत्तम जन्म और मुक्ति नहीं मिल सकती। इसके उदाहरण स्वयं उनके ये पूर्व भव हैं।
कवि मुनि श्री विजयविद्याचनद्रसूरिजी मूर्तिपूजक श्वेतांबर आम्नाय के आचार्य होने से पूरी काव्य रचना का आधार श्वेतांबर मान्यता एवं परंपरा रही है। जो स्वाभाविक भी है। भ. महावीर की कतिपय जीवन घटनाओं तक ही ये मान्यताएँ पृथक हैं। सिद्धांतो उपदेशों में कोई अंतर नहीं है।
- तीर्थंकरो के गर्भ (च्यवन) जन्म, दीक्षा, केवल ज्ञान एवं मोक्ष ये पांच महत्वपूर्ण जीवन के प्रसंग या घटनाएँ होती है। जिन्हें जैन परिभाषा में कल्याणक कहा गया है। मान्यता के अनुसार ये घटनाएँ विश्व का कल्याण करनेवाली होती है। जगत के जनजन के सुख हेतुक होती है। तीर्थंकर का गर्भ में आना ही इस तथ्य का प्रतीक होता है कि धरती पर ऐसी भव्य दिव्य आत्मा जन्म लेने जा रही है जो स्वयं कष्ठ सहकर भी विश्व में फैले संकटों का निवारण करेगा। अन्याय, हिंसा, अनीति, वहम, कुरीतियों के अंधकार को अपमे व्यक्तित्व एवं कृतित्व की किरणों से काटेगा । उनका जन्म चराचर के लिए आनंदोत्सव का कारण इसीलिए बनता है। उसके जन्म का उत्सव सभी मनाते हैं। जागरण के अग्रदूत का स्वागत होता है। वातावरण में प्रसन्नता, सुखन्याय अंकुरित होने ' लगते हैं। संसार के सभी उपलब्ध भौतिक सुख बाँध नहीं पाते। संसार को सुख प्रदान
करने के लिए दुःख से छुटकारा दिलाने के लिए वह राजवैभव छोड़कर सर्वस्व त्याग तर उस पथ का पथिक बनता है। जहाँ से संसार के सुख के अमृत की खोज प्रारंभ होती है। वह स्वयं प्रकाशित होता है और पर प्रकाश का उपाय प्राप्त कर लेता है। तीनों लोकों
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