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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन
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है । परन्तु काव्य के मधुर संगीतात्मक पुट से उस नीरसता को भी सरसता में परिवर्तित का कार्य कवि करते हैं। मुनि श्री ने भगवान महावीर के पूर्व भवों और वर्तमान जीवन की घटनाओं का मार्मिक विश्लेषण किया है। उनके गुणों, शक्ति सिद्धांतो का तर्कबद्ध शैली में प्रस्तुतीकरण हुआ है।
आचार्यश्रीने अपने प्राक्कथन में कृति के विषय में बहुत कुछ स्पष्टताएँ की हैं । रचना का उद्देश्य प्रस्तुत करते हुए वे कहते हैं कि वर्तमान साहित्य से उत्पन्न विकृत हटाने के लिए आचार्यों, विद्वानों, संतों, साहित्यकारों, कवियों एवं कलाकारों का यह परम कर्तव्य है कि वे अपनी तपः पूत साधना के द्वारा ऐसे साहित्य की रचना करें जो आज के मानव को विशेषकर युवावर्ग को सही दिशा प्रदान कर सके । और उनके जीवन में धार्मिक प्रवृत्ति, नैतिक निष्ठा तथा आध्यात्मिक चेतना की जागृति हो सके। मुनि श्री मानते हैं कि दिव्य चरित्र के पावन प्रकाश की अनुभूति महापुरूषों के चरित्रों से ही होती हैं। उनके गुरुदेव ने उन्हें प्रेरणा और उपदेश देते हुए कहा था- "उत्तम साहित्य से अपने मस्तिष्क का भंडार भरों और सदैव स्वाध्याय शील बनों इससे जीवन में चारित्रिक विकास होता है । सत् साहित्य के स्वाध्याय के आधार पर उस के अनुरूप विचारों से जैन दर्शन के साहित्य की अभिवृद्धि करों ।” गुरुदेव के इसी आशीर्वाद का फल मुनिश्री की प्रबंध और मुक्तक रचनाएँ हैं ।
कृति में भगवान महावीर के पूर्व २६ भवों का वर्णन हैं, भगवान महावीर के पांचों कल्याणकों का वर्णन हैं। साथ ही ११ गणधर के ऐतिहासिक तथ्यों का निरूपण करते हुए गणधरवाद के संबंध में दार्शनिक व्याख्या प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। कृति इन्हीं चरम तीर्थंकर श्री महावीर को समर्पित की गई है जो ज्योतिपुंज, जगत के आधार हैं। जिन की वाणी जनकल्याणी है और उन्होने सतपथ दिखलाकर जगत के जीवों का कल्याण किया हैं ।
कृति का प्रारंभ मंगलाचरण से हुआ है जिसमें कवि भरतक्षेत्र की पावन भूमि को वंदन करता है जहाँ उन्नत सिद्धात्माओं ने जन्म लेकर जग का कल्याण किया । वे महावीर और गुरुवर यतिन्द्रसूरीजी को वंदन करते हैं । कवि की नम्रता यह है कि वह इस | काव्य रचना को प्रभु की कृपा का ही वरदान मानते हैं जिससे प्रेरित होकर वह उनके गुण-गान करने के लिए प्रस्तुत हुए हैं। कृति का प्रारंभ कवि ने महावीर के प्रथम भव महाराज नयसार से प्रारंभ किया है और महावीर से पूर्व २६ भवों में विविधवार कर्मो और भावों के कारण देव, नारकी, तिर्यंच, मनुष्य योनि धारण करता रहा है । कभी
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