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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन है। जिस में त्रिशलानंदन वीर की आत्मभाव से आरती उतारी है। प्रथम सर्ग "दिव्य प्रेरणा' में कविने सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक परिस्थितियों का चित्रण किया है। ऐसे समय पर सुख-शान्ति का महा पाठ पढाने के लिए दिव्य प्रेरणा देने के लिए इस धरा पर मनुष्य के रूप में दिव्यज्योति जन्म लेती है, उसे पाकर मानव जगत धन्य हो जाता है। इस सर्ग में कवि ने ऋषभदेव के चरित्र का भी संकेत दिया है कविने दिगंबर, श्वेतांबर मान्यताओं का सामञ्जस्य करते हुए भगवान के जन्म आदि के बारे में विवेचन किया है। कवि ने अरिहंत के बारह गुणों का अर्थात् आठ प्रतिहार्य और चार अतिशय का काव्य में वर्णन किया हैं। ‘जन्मधाम' सर्ग में वीर की जन्मस्थली की चर्चा की है। राजा सिद्धार्थ और रानी त्रिशला के विषय में विद्वानो के मतभदों का वर्णन तथा त्रिशला के सौंदर्य का सुंदर वर्णन किया है। भगवान के जन्म से पूर्व में प्रकृति के अनुकूल अलौकिक चित्र को कविने निरूपित किया है। 'दिव्यशक्ति अवतरण' सर्ग में गर्भ परिवर्तन का विवरण, सोलह स्वप्नो का फलादेश, जन्म के समय चारो और जड़ और
चेतन प्रकृति में हर्षोल्लात्स का मनोरम वातावरण, जन्मोत्सव मनाना दानादि का वर्णन किया है। 'शैशवलीला' सर्ग में कविने अपनी काव्य कौशलता से प्रभु की बाल्यावस्था का शारीरिक एवं सौंदर्य-चेष्टाओं का उनकी अन्तः प्रकृति का भी सजीव और हृदयग्राही चित्र अंकित किया है। उनके वात्सल्य-चित्रण में ममतामयी माता के स्नेहपूर्ण हृदय की व्याकुलता और औत्सुक्य की व्यंजना भी सुंदर बन पड़ी है। जिस समय माता त्रिशला मुदित होकर पलने में झुला झुलाकर मधुर स्वरों में सब मिलकर लोरियाँ गा रही है उस समय के वात्सल्य का सजीव चित्रण कविने किया है।
गाती रसमय मुदित लोरियाँ आओ परियाँ नवल गोरीयाँ ।
*** आरी निंदीया। प्यारी निंदिया।
माथे सोहे मोहन बिंदीया। २ भगवान घूटनियाँ से चलना सीख रहे है उस समय का तादृश्य अद्वितिय चित्रण किया है
१. २.
“भगवान महावीर" : कवि शर्माजी, "शैशवलीला' सर्ग-४, पृ.४६ वही, पृ.४७
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