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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन
काव्य-कौशल सभी का समावेश किया है । पद-पद पर रूपको, उपमाओं और अन्य अलंकारो की छटा दर्शनीय है । अलंकार निदर्शन के लिए शब्दावृत्ति, अर्थावृत्ति और अनुप्रास आदि का यशोचित उपयोग किया गया है -
भयन्द हेमन्त जलेव भूप की, सुदीर्घ हेमंत निशेव आयु थी । सुसह्य हेमनेत जीव पार्थ के, विनष्ट हेमंत नलेव शत्रु थे । '
परंपरागत अलंकार कौशल के अतिरिक्त कविवर अनूप ने 'वर्धमान' काव्य में अपनी भावमयी कल्पना से सुषमा के अनेक नये सुमन खिलाये । कहीं कहीं शब्दों की कल्पना में अर्थ और मृदुता का इतना विस्तार भरा है कि परिभाषाएँ और कल्पनाएँ काव्यमय हो गई है।
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यद्यपि भाषा-शैली की दृष्टि से यह सफल कृति है, फिर भी कहीं-कहीं भाषा विष्टता आ गयी है । जिससे समजाने में कठिनता भी उत्पन्न होती है ।
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वास्तव में 'वर्धमान' काव्य प्रधानतः भक्ति और वैराग्य का काव्य है । भगवान महावीर ने अविचलित कठोर तपस्या, निरन्तर आत्मचिन्तन एवं मौन साधना के बाद ही कैवल्य सर्वज्ञता की प्राप्ति की । कैवल्य प्राप्ति के बाद भगवान 'वर्धमान' ने जो उपदेश दिये है, कविवर श्री अनूप ने इस महाकाव्य में उन्हें आचार की पवित्रता एवं दोष त्याग की प्रधानता से युक्त किया है। प्रारंभ से अंत तक कवि का दृष्टिकोण यही रहा हैं कि 'वर्धमान' महाकाव्य सर्व साधारण के लिए बोधगम्य हो और इसके उपदेश जीवनोपयोगी हो । कवि ने इसका पूरा ध्यान रखा है
जितन्द्र बोले यह धर्म वाक्य, जो कि सर्व साधारण बोधगम्य थे ।
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गृहस्थ के साधु समाज के सभी, बता चले धर्म तथैव कर्म भो ॥ १
" वर्धमान' : कवि अनूप शर्मा प्रथम सर्ग, पद. सं. ४३, पृ. ४५.
वही, सर्ग - १७, पद. सं. १४९, पृ. ५६२.
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