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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आश्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधि, दुर्लभ और धर्म इन द्वादश भावनाओं का अनुचिन्तन प्रस्तुत किया गया है।
कवि ने काव्य में वर्णन, प्रकृति चित्रण, कथानक, प्रेमश्रृंगार, षऋतुओं का वर्णन, वैराग्य और उपदेशात्मक तथ्य आदि विषयानुसार क्रम से सर्गो का विभाजन किया है। कवि ने भगवान महावीर के जन्म से लेकर निर्वाण तक का सजीव चित्रण किया है। उन्होने भगवान महावीर के जीवन को अन्तस तक टटोलकर पाठक के सामने उजागर करने में सफल हुए है। जिस समय भगवान अन्तर बाह्य सब प्रकार के परिग्रहों से मुक्त होकर विकार शून्य दिगम्बराकार, अनुपम रत्नत्रय आभूषण को धवल-धारक बने उस समय से दीक्षा चित्रण का सुंदर चित्रांकन किया है।
अहो । अलंकार विहाय रत्न के, अनुप रत्नत्रय, भूषितांग हौ, तजे हुए अंबर अंग-अंग से,
दिगम्बराकार विकार शून्य हो।' भगवान महावीर ने तीस वर्ष की सुख वैभव पूर्ण युवावस्था में अनित्य, अस्थिर एवं नश्वर जान परित्याग कर योग साधना के कठिन मार्ग को अपनाया । सम्पन्न जीवन का त्यागकर सामान्य जन जैसा जीवन स्वीकार किया और इसी कारण वे एक प्रियदर्शी लोकनायक के रूप में प्रसिद्ध हुए।
प्रस्तुत वर्धमान काव्य लिखने का कवि का मूल उद्देश्य जीवन के सत्यांश की प्रतिष्ठा करना रहा है। तथा भगवान महावीर के बताये हुए वैयक्तिक, सामाजिक, बौद्धिक, धार्मिक सभी स्तरों पर अहिंसक क्रांति का मार्ग प्रशस्त करना है। अहिंसा, अपरिग्रह के बल पर राष्ट्र के प्राणियों को नवचेतना देना ही मुख्य उद्देश्य रहा है। उनका समस्त जीवन ही राष्ट्र के लिए समर्पित था। स्व और पर का कल्याण करते हुए आत्मोत्थान करना ही भगवान का लक्ष्य रहा है। भगवान महावीर आत्मवादी थे। उनका यह अभिमत था कि हर व्यक्ति अपनी पहचान करके अपने लक्ष्य तक पहुँच सकता है। इसी संदर्भ में उन्होंने ‘अप्पा दिवो भव'आत्म दिपक बनो, इस प्रेरक सूत्र का संधान किया। कवि ने महाकाव्यों के अनुरूप ‘वर्धमान' में वर्णन सौंदर्य, पद-लालित्य, अर्थ गांभिर्य रस, निर्जर और
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“वर्धमान" : कवि अनूप शर्मा सर्ग -१४, पृ.४३२, पद -११९.
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