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________________ १३ हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन रानी त्रिशला की मधुर वाणी को सुनकर कोयल और वीणा दोनों का मान खंडित हो जाता है। लगता है जैसे एक वन में रो रही है, तो दूसरी धराशयी हो गयी है सुनी सुधा मंडित माधुरी धुरी, जभी सुवाणी त्रिशला मुखाब्ज से। पिकी कुहू रोदन में रता हुई, प्रलंब भूमे परिवादिनी हुई। त्रिशला के श्रीमुख से निःसृत वाणी से समक्ष कोयल का कूजन रुदन में परिवर्तन होता है और वीणा पृथ्वी पर लेट जाती है। .. पंचम सर्ग में राज-दम्पति का प्रेमालाप सामान्य स्तर का प्रेम, श्रृंगार और मनोरंजन का साधन न होकर जीवन के उदान्त भावों को धारण करता है। त्रिशला माता और सिद्धार्थ पिता का वह पारस्परिक प्रेमालाप आध्यात्मिक रूप ले लेता है जब से मोक्ष और तीर्थंकर प्राप्ति की अभीष्ट अभिलाषा के समान एक दूसरे को चाहने का प्रश्न करते हैं - "प्रभो, मुझे ही किस भांति चाहते ? यथैव निःश्रेयस चाहते सुखी।" "प्रिये, मुझे हो किस भांति चाहती? यथैव साध्वी पद पार्श्वनाथके।" २ इस स्थान पर पहुंचकर सहसा ध्यान आता है कि यहाँ पांचवें सगर्ग में जो राज दम्पति इतने ऊंचे उठकर प्रेम वार्तालाप कर रहे हैं। दूसरे सर्ग में भी तो यही दंपति है जो भगवान के जनक और जननी बननेवाले है । लगता है जैसे कविने दूसरे सर्ग में इन्हें केवल राज दंपति के रूप में ही मानकर रानी-त्रिशला के नख-शिख का वर्णन किया । वास्तव में कवि ने काव्य में दूसरे सर्ग का पार्थिव श्रृंगार यदि पांचवे सर्ग में अपार्थिव और आध्यात्मिक हो गया है। जो कवि की सफल कल्पना का प्रतीक है। कवि अनूप शर्मा ने काव्य में भगवान का च्यवन, जन्म, बाल्यावस्था, आमल की क्रीडा आदि चमत्कारपूर्ण घटनाओं का सुंदर ढंग से वर्णन किया है। १. २. “वर्द्धमान" कवि अनूप शर्मा, प्रथम सर्ग, पद सं. १०५, पृ.६१ वही, पांचवा सर्ग पद सं. १५८, पृ. १५८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002766
Book TitleMahavira Prabandh Kavyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyagunashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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