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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन . कवियों ने काव्य के अन्तर्गत व्यतिरेक, अनुप्राश, दृष्टान्त, उदाहरण आदि अलंकारो का स्वाभाविक चित्रण करके काव्य के भावों को जागृत किया हैव्यतिरेक:
एक एक मणि ऐसी द्युतिमय जड़ी रहेगी उस में प्राण। नभ के नक्षत्रों से बढ़करहोगी जगमग ज्योर्तिमान ।'
__ *** उस रुप ने उस मूर्ति ने तम को पराजित कर दिया।
उस पूर्ति ने उस मूर्ति ने संसार धन से भर दिया। अनुप्रास:
तड़ाग थे, स्वच्छ तडाग हों यथा, सरोज थे, फूल्ल सरोज हों यथा। शशांक था, मंजु शशांक हो यथा। प्रसन्नता पूर्व शरत्वभाव था॥३
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अन्त्यानुप्राश:
पीड़ा चसक रही है। क्रीडा कसक रही है।
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दृष्टान्त अलंकारः
भीतर की अनन्त सत्ता को भूल गया यह जीव अजान।
"श्रमण भगवान महावीर" : कवि योधेयजी, "बाल-लीला' सोपान-२, पृ.८१ “वीरायण" : कवि मित्रजी, "तालकुमुदिनी' सर्ग-३, पृ.७७ "वर्द्धमान" : कवि अनूपशर्मा, सर्ग-५, श्लो.४, पृ.१४० "वीरायण' : कवि मित्रजी, सर्ग-८, पृ.२०२
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