________________
२३७
हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन
फिर तप का लेकर में विशाल शर आसन रे तीक्ष्ण बाण बन गये ज्ञान औ दर्शन - १
*
**
उत्प्रेक्षा अलंकार :
कविने तीर्थंकर के जन्म के समय का वातावरण का उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों द्वारा अनुपम चित्रण काव्य में लिया है -
ऐसा लगता है ज्यों नभ में-सुधा पुर बादल छाये। सूर्य चन्द्र जो बिछुड़े कब से आज मिले और हरषाये । धरा नवोढ़ा ने भी मानों, नभ प्रिय हित श्रृंगार किया। शुष्क अधर प्यासे मरते जो, उनने छकर नीर पिया ॥२
*
**
पादप शाख लगी लहराने, किसलय मानों थिरक पड़े। कोकिल कलरव गुंजित धर नभ, रजतस्वर्ण गिरि शिखर जड़े।
*
**
रानी त्रिशलादेवी का रुपसौन्दर्य :
अंग-अंग अभिराम चाल में हंसमचलते थे मानों कल्पवृक्ष की कलित लता पर, शुक शाबक पलतें मानो। कंठ कोटि कोकिल कंठों को, मानों मौन सिखाता था। मुख मयंक की मंजुल छबि को, नीरद और दिखाता था।'
***
कवि ने स्थान स्थान पर उत्प्रेक्षा अलंकार को भावों के अनुकूल रखकर उनकी छटा दर्शनीय बन पडी है। यहाँ देखिए राजा सिद्धार्थ के चिंतन में -
"तीकर महावीर" : कवि गुप्तजी, सर्ग-५, पृ.१७३
भगवान महावीर' : कवि शर्माजी, "दिव्य प्रेरणा", सर्ग-१. पृ.१६ वही वही, पृ.१८
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org