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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन
जग में नाचा बहुत माँ, नाटक किये अनेक |
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मुँह में मधु मन में जहर, मित्र एक से एक ॥। १
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शान्ति सुधा संतोष में, असंतोष में आग । निकल रहे हैं बिलों से, असंतोष के आग ॥
२
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दोस्त न अपना एक भी, प्यार प्यार में वैर ।
- पृ. २३९
समय पड़ा तो हो गये । सगे सहोदर गैर ॥
३
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तृष्णा जड़ है पाप की,
आशा है अभिशाप |
गर्व बड़ा शैतान है,
४
डाह बड़ा है ताप ||
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राज मिले जग धन मिले,
मिले रत्न का कोष ।
सारे धन बन्धन बड़े,
यदि न मिला संतोष ॥
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"वीरायण" : कवि मित्रजी, “विरक्ति", सर्ग ९, पृ. २३८
वही, “बालोत्पल", सर्ग-५, पृ. ११६
वही, “ विरक्ति", सर्ग-९, पृ. २१४
वही,
वही, "वनपथ”, सर्ग - १०, पृ. २६१
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