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________________ हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन और उन्हें हिन्दु पुराणों में जनक के पूर्वज के रूप में माना गया है। नमि की अनासक्तवृत्ति इतनी प्रसिद्ध थी, जिससे उनका वंश ही विदेह कहलाता था। अहिंसा का प्रचार नमि के युग में विशेष रूप से हुआ था। उत्तराध्ययन में नमि-प्रव्रज्या का सुंदर वर्णन उपलब्ध होता है। और यहाँ उन्हीं के द्वारा वे वाक्य कहे गये हैं, जो वैदिक व बौद्ध परंपरा के संस्कृत व पालि साहित्य में गूंजते हुए पाये जाते हैं। इस प्रव्रज्या में आये हुए वचनों की तुलना पालि जातक और महाभारत के कई अंशो से की जा सकती है। २ तीर्थंकर नमि की अनासक्तवृत्ति मिथिला में जनक तक पायी जाती है। कहा जाता है कि अहिंसात्मक प्रवृत्ति के कारण ही उनका धनुष प्रत्यंचाहीन रूप में उनके क्षत्रियत्व का प्रतीक मात्र रह गया था। राम ने शिव-गांडीव को फिर प्रत्यच्यायुक्त किया। सीता स्वयंवर के अवसर पर रामने इसी प्रत्यच्याहीन धनुष को तोड़ कर धनुष पर पुनः प्रत्यच्याकी परंपरा प्रचलित की। वस्तुतः अहिंसा में ही शौर्य और पराक्रम की वृत्ति निहित है। तीर्थंकर नेमिनाथ : २२ वें तीर्थंकर नेमिनाथ का वर्णन जैन ग्रंथो के साथ ऋग्वेद, महाभारत आदि ग्रंथो में पाया जाता है। वह महाभारत का युग था। यह काल ईस्वी पूर्वे १००० के लगभग माना जाता है। नेमिनाथ यदुवंशी थे। उनके पिता अंधकवृष्णी के ज्येष्ठ पुत्र समुद्रविजय थे, कृष्ण, वसुदेव से उत्पन्न उनके चचेरे भाई थे। नेमिनाथ का विवाह संबंध गिरिनगर (गिरनार) के राजा उग्रसेन की विदुषी कन्या राजुलमती से होना निश्चित हुआ था, किन्तु जैसे ही बारात गिरिनगर पहुंची नेमिनाथ का ध्यान अतिथियों को भोजन के निमित्त गया। सेंकडो पशुओं की करुणार्द चीत्कार पर गया। उन्होने संसार का परित्याग कर दिया और विवाह मण्डप में जाने की अपेक्षा वे तपोवन में चले गये । बाईसवें तीर्थंकर के रूप में उन्होंने अहिंसा और करूणामूलक जीवन दृष्टि को एक सुव्यवस्थित सिद्धांत के रूपमें प्रचारित किया। “सुहं वसामो जीवामो जेसिं मो णत्थि किंचण। मिहिलाए डज्झमाणीए ण मे डज्झइ किंचण ॥'- उत्त. ९-१४ “सुसुखं वत जीवाम येसं नो नत्थि किंचन। . मिथिलाए दहमानाय न मे किंचन दह्यते ॥"- पालि-महाजनक-जातक "मिथिलायां प्रदीप्तायां न मे किंचन दह्यते।"- म. भा. शांतिपर्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002766
Book TitleMahavira Prabandh Kavyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyagunashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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