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________________ हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन २११ - " प्रावृट" तत्सम शब्द है, उसका अर्थ वर्षा ऋतु । कविने आषाढ़ की वर्षाऋतुका वर्णन किया है। एक एक मणि, ऐसी द्युतिमय, जड़ी रहगी उसमें प्राण । नभ के नक्षत्रों से बढ़कर, होगी जगमग, ज्योतिर्मान । १ *** इस पद में कविने “द्युतिमान" और " ज्योतिमान" शब्दों के राजा सिद्धार्थ के हृदय पर सुशोभित हारका सुंदर चित्रण किया है। हार गया वह सर्प अन्तमें, पलमें अन्तर्धान हुआ । अगले ही पल, धरती परथाएक देव म्रियमाण हुआ। *** यहाँ “म्रियमाण” शब्द तत्सम है । उसका अर्थ मरा हुआ । देव सर्प रुप धारणकर भगवान की परीक्षाके लिए आया । परन्तु भगवानके बलके सामने देव पराजित हुआ। उसीका वर्णन है 1 २. ३. कुछ कहो मेदिनी सुख कितने ? दुःखों के कितने आवर्तन । इस पथ पर आने जाने के, देखे कितने प्रत्यावर्तन ॥ ३ *** कविने इस पंक्ति तत्सम मेदिनी शब्दका प्रयोग करके धरती की वेदना का वर्णन किया है। मनुष्य सर्प बन गया मनुष्य श्वान हो गया । मनुष्य गिद्ध बन गया दुखी जहान हो गया ॥ (6 'श्रमण भगवान महावीर” : कवि योधेयजी, सोपान - २, पृ. ८१ वही, पृ. ८९ " वीरायण" : कवि मित्रजी, "पृथ्वी पीड़ा", सर्ग - २, पृ. ४४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002766
Book TitleMahavira Prabandh Kavyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyagunashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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