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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन शब्द प्रयोगः
काव्य-भाषा में कवि भावों के अनुरुप भाषा का प्रयोग करता है । वह पात्रानुकूल, युगानुरुप, भावों एवं रसोके संदर्भ में शब्दों का प्रयोग करता है । प्रायः पौराणिक व ऐतिहासिक या महापुरूषों के चरित्रांकनमें अधिकांशत- तत्सम् शब्दावली का प्रयोग होता है। रचना हिन्दी में होनेसे स्वाभाविक तद्भव शब्द प्रयुक्त होते रहते हैं, साथ ही लोकबोली के बहु प्रयुक्त देशज शब्दों का प्रयोग भी स्वाभाविक रुपसे हो जाता है। ऐसे शब्द ग्राम्यजीवन की सुगंध लिए होते हैं। उनमें आंचलिकताका सोंघापन होता हैं। युगमें प्रचलित विदेशी शब्द में हमारी बोलचालकी भाषामें सहज रुपसे प्रयुक्त होते हैं वे भी आ जाते हैं। मजे की बात है कि इन चारों प्रकार के शब्द प्रयोग में कवि को जानबूझ कर कोई प्रयास नहीं करना पड़ता। हाँ.....पात्र, समय, युग आदि के अनुरूप शब्द स्वयं ही आते रहते हैं। प्रस्तुत महावीर संबंधी प्रबंधों में सभी प्रकार के शब्दों का प्रयोग हुआ है जिसमें तत्सम व तद्भव की प्रचुरता हैं। तत्सम:
___ जो शब्द मूल संस्कृत भाषा का हो और कालान्तर में पाली, प्राकृत इत्यादि मध्ययुगकी भाषाओं में, और आगे चलकर अर्वाचीन भारतीय भाषाओं में भी बिना कोई ध्वनि परिवर्तन प्रयुक्त होता है तो वह शब्द तत्सम कहा जाता है।
निशेश न्योछावर आस्य पै हुआ, प्रवाल-शोभा पद छू सुखी हुई।'
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कविने इस पद में एक से अधिक तत्सम शब्द का प्रयोग हुआ है । जैसे "आस्य” और “प्रवाल" तत्सम शब्द हैं । इसका क्रमानुसार मुख और मूंगा अर्थ होता है।
कविने तत्सम शब्दों के प्रयोग करके महारानी त्रिशला का सुंदर रुप-गुण वर्णन काव्यमें प्रस्तुत किया है।
नवांगना के रस-सिक्त चित्त-सा, बना रहा प्रावृद् इन्द्र-चापको। २
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१. २.
“वर्धमान' : कवि अनूपशर्मा, सर्ग-१, पद सं.८३, पृ.५६
वधमान का वही, सर्ग-२, पद सं. २४, पृ.७९
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