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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन
लगता है-जैसे प्राणों में, ढलता हो पिघला प्रवाल।
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यहाँ वियोग के ब्यालमें मुख्यार्थ का बाध होता है और लक्षणा से विरह वेदना अर्थ होता है। साँप डसने से तीव्र वेदना होनाही व्यंजना है।
निर्मल अम्बर सुन्दर समीर, फैला बसन्त बन बागों में। मंगल ध्वनियाँ मनहर बाजे, पक्षी गाते सब रागों में। नक्षत्र सभी अनुकूल हुए, शुभ घडियों की आ गई घड़ी। उस क्षण की पूजा करने को, सिद्धियाँ खड़ी थी बड़ी बड़ी॥
*** कविने इस पद में सिद्धियाँ खड़ी थी बड़ी बड़ी का प्रयोग किया है, लेकिन सिद्धियाँ कभी खड़ी नहीं रहती है, अत: व्यंजना से इसका अर्थ सिद्धियाँ भगवान के निकट आनेके लिए तैयार थी।
अजगर बोला निज दाँतों में, मैं जहर मनुजसे लाता हूँ। दबने पर काटा करता हूँ, बचता हूँ और बचाता हूँ। मेरा काटा बच भी जाता, बचता न मनुज के काटे से। सज्जनता को गर्वान्ध दुष्ट, उत्तर देता है चांटे से ॥
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अजगर मनुष्य से जहर लाता है ऐसा कविने कहा है। इसमें मुख्यार्थ बाध हुआ, क्योंकि मनुष्य के पास जहर नहीं होता। किन्तु लक्षणा से अर्थ हुआ कि दुर्जन मनुष्य का स्वभाव विषैला होता है। जहर का दूसरा अर्थ हुआ दुर्जन मनुष्यका जहरीला स्वभाव । (अजगर मनुष्यसे जहर लाता है इससे, व्यंजना फलीत हुई कि दुर्जन मनुष्य अजगर के जहर से भी ज्यादा जहरीला है।)
निःसंदेह रुपमें कवियोने कृतियों में अभिधा, लक्षणा और व्यंजना द्वारा भगवान महावीर के काव्यों का कवियोने सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया है।
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"श्रमण भगवान महावीर" : कवि योधेयजी, “विदाकी वेला", सोपान-३, पृ.१२६ “वीरायण": कवि मित्रजी, “जन्मज्योति', सर्ग-४, पृ.९५ वही, “पृथ्वी पीड़ा", सर्ग-२, पृ.६३
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