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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन इस पदमें “पद्म सरोवर को यश की खान' कहा है, परन्तु उसका अर्थ यशकी खान न होकर लक्षणा से इसका अर्थ पद्म सरोवर यशको देनेवाला होता है। व्यंजनाः
जिस शक्ति से अभिप्रेत अर्थ तक पहुँच होती है, उसे व्यंजना कहते हैं। व्यंजना के दो भेद होते हैं-शाब्दी और आर्थी । जहाँ व्यंग्यार्थ किसी विशेष शब्द के प्रयोग पर ही निर्भर रहता है वहाँ शाब्दी व्यंजना होती है अर्थात् उस शब्द के स्थान पर उसका पर्याय रख देने से व्यंजना नहीं रह जाती। शाब्दी व्यंजना केवल अनेकानेक शब्दों में होती हैं। आर्थी व्यंजनाः
जहाँ व्यंजना किसी शब्द विशेष पर अवलम्बित न हो अर्थात् उसका पर्याय रखने पर भी बनी रहे, वहाँ आर्थी व्यंजना होती है।
कण कण जलता और पिघलता, काया तिल तिल चिटक रही। अंग अंग जैसे कटते हों, हड्डी हड्डी तिड़क रही।
*** कविने विरह की अग्निके साथ तुलना की है। अंग जो कट रहे हैं और हड्डी तिड़क रही है, दोनों में मुख्यार्थ बाध हुआ और लक्षणा से विरह वेदना अर्थ मिलता है। और उससे तीव्र विरह की वेदना होना ही व्यंजना है।
जननी मुस्काती रही, खिले जन्म से फूल। प्रसव वेदना का कहीं, चुभा न कोई शूल । २
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इस पद में मुख्यार्थ के बाध से लक्षणा हुई। और लक्षणा से चारों और आनंद फैलना यह रुप व्यंग्यार्थ अभिव्यक्त होता हैं।
प्रतिक्षण दंश मारते रह रह सम्भावित वियोगके व्याल
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"श्रमण भगवान महावीर" : कवि योधेयजी, “विदा की वेला", सोपान-३, पृ.१२६ “वीरायण' : कवि मित्रजी, “जन्मज्योति", सर्ग-४, पृ.९६
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