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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन छ: ऋतुओं के फल फूल हुये, भर गये जलाशय आसपास । सातों नरकों में क्षण भरकों सुख चैन हो गया अनायास ॥
*** पेडों की फुनगी पर चिड़िया गीत मनोहर गाती। मलियानिल की पुरवा-सी हवा गंध ले आती।
*** भगवान के शरीर का अंगोपांग स्वर्ण के समान सुशोभित था, यह पूर्व जन्म की बहुत बड़ी विशेषता थी। शरीर सुडौल मिलना यह भगवान का जन्मजात अतिशय का ही श्रेय है। कवि ने काव्य में भगवान के अंगोपांग के सौन्दर्य का मनोहर चित्रण प्रस्तुत किया है -
पादम्बुज थे मृदुल सुमंजुल, मनहर अतिशय शोभावान । कटि वक्षस्थल सिंह सदृश औ, बाहुदण्ड में शौर्य महान ॥ बदन चन्द्र-सा सुन्दर अनुपम, लोचन भाल कपोल ललाम वज्र ऋषभनाराच संघयण, स्वर्ण-देह शोभित अभिराम । ३
*** कवियों ने काव्यों में आठ प्रातिहार्य और चार अतिशयों का वर्णन किया है। इन गुणों का एक रमणीय वातावरण का काव्य में मनोहर वर्णन किया है।
तीस चार अतिशय तीर्थंकर, अष्ट समुज्ज्वल है प्रातिहार्य। स्वेद हीन तन रक्त दुग्धतम, सुरभित होते दिव्य कार्य । सहसाष्ट शुभ लक्षण होते, अमितशक्ति युग और छविमान। हितमित अतिप्रिय वचन सुधासम, जग सुभिक्षकारक-शुचि ज्ञान ।'
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"त्रिशलानन्दन महावीर" : कवि हजारीलाल, पृ.३५ "जय महावीर" : कवि माणकचन्द, सर्ग-३, पृ.४२ "चरम तीर्थंकर महावीर" : कवि विद्याचन्द्रसूरि, पद.६६, पृ.१८ "भगवान महावीर' : कवि रामकृष्ण शर्मा, सर्ग-१, पृ.१५
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